यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ग्रन्थावली । [ ८४६ ली है। 'बरियाँ' का अर्थ 'बेला' करने पर इस पक्ति का अर्थ इस प्रकार किया जाता है, 'अवसर रहते ही मैने खेत को सम्हाल लिया है ।" परन्तु हमको जो अर्थ सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ हमने ऊपर वही लिख दिया है। ... (1) तुलसी की भांति कबीर भी 'राम' नाम की महिमा गाते हुए थकते नहीं हैं। (३९७ ) हरि गुन सुमरि रे नर प्रांणी। जतन करत पतन है जैहै, भाव जांमण जांणी ॥टेक॥ छीलर नीर रहै धू कैसे, को सुपिने सच पावै॥ सूकित पांन परत तरवर थे, उलटिन तरबरि आवै ॥ जल थल जीव डहके इन माया, कोई जन उबर न पावै। रांम अधार कहत हैं जुगि जुगि, दाप कबीरा गावै ॥ शब्दार्थ-भाव=मन को अच्छा लगे । जाणम जाणी=जानने योग्य वात को जान ले । छीलर= छिछला पोखर । पान= पत्ता। डहके = धोखा दिया । उवर पावै उद्धार हो पाया। सन्दर्भ-कवीर माया के सर्वव्यापी प्रभाव का वर्णन करते है। भावार्थ- रे प्राणी, तुम भगवान के गुणो का स्मरण करो। इस प्रकार के प्रयत्न (वाह्याचार) करते हुए तेरा शरीर नष्ट हो जाएगा। तुम चाहो, तो इस जानने योग्य तथ्य को जान लो । छिछले पोखर मे पानी कब तक रह सकता है ? वह तो सूखेगा ही। (अल्पशक्ति वाला शरीर तो नष्ट होगा ही)। स्वप्न मे प्राप्त होने वाले सुख से कौन सुखी हो सकता है ? जो पत्ता पेड से गिर गया है, वह उलट कर वापिस उस वृक्ष मे नही लगता है । जल-थल के सम्पूर्ण जीव इस माया के घोखे मे पडे हुए है । भगवान का कोई भक्त ही इससे छुटकारा पा सकता है । कवीरदास कहते हैं कि एक मात्र राम-नाम ही युग युगातर से इस माया से वचने का आधार रहता आया है। अलंकार-(1) विशेषयोक्ति-जतन .. जैहै । . (1) अनुप्रास-जतन जैहै जाणम जाणी। (ti) वक्रोक्ति-छीलर पावै। (iv) निदर्शना-छीलर आवै । (vi) पुनरुक्ति प्रकाश-जुगि जुगि । विशेष-(1) वाह्य साधनो का विरोध है। (u) मन की पवित्रता का प्रतिपादन है । (u) राम-नाम की महिमा अपार है। (iv) समभाव देखें मनिखा जनम दुर्लभ है देह न वारम्बार । तर-वर से फल झाड़ि पडया, बहुरि न लाग डार ।