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[कबीर की साखी
 

पर्दा पड़ा है। इसी प्रकार ब्रह्मानुभूति की शक्ति के बिना दृष्टि निर्मल नहीं होगी। (२) निस...कारणौं—रात्रि के अन्धकार के कारण या रात्रि के अन्धकार को दूर करने के लिए। (३) अति आतुर...किया = अत्यन्त आतुरता के साथ अथवा अत्यन्त तीव्रता के साथ चन्द्रमा उदय किया या आयोजित किया। (४) तऊ...मन्द = फिर भी दृष्टि नही है। दृष्टि मन्द ही रहेगी।

शब्दार्थ—ऊदै = उदय। दिष्टि—दृष्टि।

भली भई जु गुर मिल्या, नहीं वर होती हांणि।
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ पड़ता पूरी जाणि॥१९॥

सन्दर्भ—सतगुरु को महिमा अनन्त है। उसने "अनन्त किया उपगार" तथा "लोचन अनन्त उवाडिया अनन्त दिखावरणहार"। तथा "सतगुरु सर्वांन को सगा सोधी सई न दाति।" उसके शब्दवाण "लागत ही मैं मिलि गया पड्या कलेजे छेद"। ऐसे बहुगुणी सतगुरु के न मिलने से बड़ा अहित होता। उसके अभाव में शिष्य की दृष्टि माया रूपी पतंग पर अवश्य पड़ती। और वह आवागमन के क्रम में सदैव के लिए बंध जाता।

भावार्थ—अच्छा ही हुआ जो गुरु के दर्शन हो गए नहीं तो बड़ी हानि होती। पतंग रूपी मेरी दृष्टि माया रूपी दीपक पर अवश्य पड़ती और इस प्रकार हर प्रकार से हानि की सम्भावना थी।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कबीर ने "दीपक दिष्टि पतंग" की सुन्दर कल्पना की है। माया दीपक है और मन या दृष्टि पतंग है। यहाँ पर कवि की अप्रस्तुत योजना औचित्य तथा यथार्थपूर्ण है।

शब्दार्थ—भली अच्छा, कल्याणकारी। भई = हुई, हुआ। तर = तो। हांणि = हानि = नुकसान। दिष्टि = दृष्टि। ज्यूं ज्यों। जाणि = जानि = जान।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवैं पडन्त।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उतरन्त॥२०॥

सन्दर्भ—पूर्वं साखी में प्रयुक्त अप्रस्तुत योजना "दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ" को और भी विस्तार तथा स्पष्टता के साथ व्यक्त करते हुए कवि ने गुरु के ज्ञान के समक्ष पुनः श्रद्धा, आस्था तथा विश्वास प्रकट करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से गुरु की महत्ता का वर्णन किए हैं।

भावार्थ—माया रूपी दीपक पर नर (रूपी) पतंग, मंडरा-मंडरा कर गिरता है। परन्तु कबीर का मत है कि गुरु के ज्ञान से (इस विनाश से) एक आध उतर जाता है या उद्धार भी प्राप्त करता है।