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(iv) अनुप्रास-सुजान सुदर सुयश । (v) अतिशयोक्ति-दसु दर सुंदरा ।

विशेष-(i) भूषन पिया का अर्थ सीता भी हो सकता है । कबीर ने कहीं कहीं राम को परव्रहा और विष्णु दोनों ही रूपो में स्वीकार किया है ।

(ii) कबीर राम के गुणों की वन्दना बार-बार करते हैं, यद्यपि उन्हें निराकार एव निगुमृग ही मानते हैं । इस विरोधाभास के कारण ही कबीर सामान्य पाठक को कबीर की वाणी, अट पटी प्रतीत होने लगती है ।

(iii) सुन्दर पुन्दरा-तुलना करें-

सुन्दरता कहँ सुन्दर करों । छएँतेगृह दीपसिखा मनु बरई । (गोस्वामी तुलसीदास)

राग कहृस्मदृण

      ( ३९३ )

ऐसे मन लाइ ल रांम रसनां, कपट भगति कीजै कौन गुणा ।।टेका। ज्यू. मृग नाई बैक्यों जाइ, ध्याड परै वाकी ध्यान न जाई ।। ज्यू' जल मीन हैत करि जानि, ग्रीन तजै बिसरै नहीं बानि ।। रेंभ्रागे कीट रहै रुयौ लाइ, हूँ जै लीन र्थिगहूँ जाइ ।। रांम सांस निज अमृत साम, सुमिरि सुमिरि जन उतरे पार ।। कहै कबीर दासनि को दास, अब नहीं छाडों हरि के चरन निवास ।।

शब्दार्थ: कौन गुणा=क्या लाभ । दृयड शरीर ।

सन्दभ"…क्रबीर राम के प्रति अनन्य प्रश्म का प्रतिपादन करते हैं ।

भावार्थ-म जीव, इस दिखावटी और बनावटी भक्ति का क्या उपयोग है ३' इससे कुछ भी लाभ नहीं होना है । भगवान राम की भक्ति के रसास्वादन मे मन लगा कर तू ऐसा तन्मय होजा, जैसे हिरण मधुर ध्वनि में अनुरक्त होकर बाणों से विद्ध होता रहता है एव उसका शरीर भी गिर जाता है (वह मर जाता है ८ परन्तु नाद से उसका ध्यान नहीं हटता है, मछली जल से ग्रेम के कारण उससे वियुक्त होने पर अपने प्राण भले ही त्याग देती है परन्तु जल से ग्रेम करने का अपना स्वभाव नहीं छोडती है, तया कवि भ्रमर से ध्यान लगाए रहता है और उसी में जीन होकर भू ग ही बन जाता है-परन्तु व्यक्तित्व का मोह करके भ्रमर को नहीं छोडता है) राम नाम ही वास्तव में आत्म स्वरूप, अमृत स्वरूप एव सार तत्व है । उसी को बार-वार स्मरण करके अनेक भक्त जन भवसागर के पार उतर गये है । कबीर कहते हैं कि मैं तो भवती का भी भक्त हूँ (दासानुदास) हूँ । अब मेरा मन रूपी भ्रमर भगवान के चरणारविन्द में निवास करना (अनुरक्त रहना) नही छोडेगा ।

अलकड़र-(ग्नू उदाहरण---, जाइ।