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प्राप्त करूगा और मैं इस प्रकार कर्मों को ज्ञान की साधना से परिणत करता हुआ
मृत्यु का आलिंगन करने को सदैव तैयार रहूँगा ।
कुम्हार होकर मैं सुन्दर वर्तन बना हूँगा । गोबी होकर मैं कपडो का मैल अच्छी तरह धो हूँगा । चमार होकर मैं चमडा जैसी घिनौनी वस्तु को अच्छी तरह रेंगूगा और इस प्रकार जाति-पति और कुल के कारण उत्पन्न होनत्व भावना को समाप्त कर दूगा । तैली होने पर मैं अपने शरीर को कोलू बनाकर उसमें पाप- पुण्यो को पेरू३गा तया भक्ति रूपी तैल निकालूँगा। अपनी पाँचो इनिदयो को कोल्हू का बौल बना दूँगा और राम-श्रेम की रस्सी से नाथ कर उसे (पवइन्तिय रूपी वैल) को भक्ति के सीधे मार्ग पर चलाऊँगा । क्षत्रिय होने पर मैं विवेक की तलवार चला दूँगा तया योग एव ज्ञान दोनो को सिध्द करूँगा । (विवेक पूर्वक दुष्टो) को दण्ड दूँगा तथा दण्ड निर्धारित करते समय तटस्थ की भाँति व्यवहार करूँगा | यही ज्ञान एव योग की साधना है |) नाई होने पर अपने मन की समस्त वासनाओं को मूड दूँगा । बढई होकर मैं कर्मों के वधन को काटूँन्गा अवधुत होने पर मैं इस शरीर के मल को धोकर साफ करूँगा और वधिक के रूप में इस वासनामय मन को ही मार डालूँगा । व्यापारी बनने पर मैं परम तत्व का व्यापार करूंगा । जुवारी होने पर मैं मृत्यु भय को ही दाव पर लगाकर हार जाऊँगा (मैं अपने शरीर की नौका और मन का केवट एव जिह्वा की परिवार बनाकर भव-सागर के पार जाऊँगा । कबीर कहते हैं कि इस प्रकार मैं स्वय तिरुन्गा और अपने पूर्वजो' (अन्य व्यक्तियो) का भी उद्धार कर दूँगा । _
अलंकार-(१) रूपक-तन कोल्हु, राम जेवरिया । पंच बैल् तन करि " डारू । (२) भो सागर । (३) अनुप्रास- तरिहै, तिरू", तारू" । विशैष-(१) कर्म की महिमा का प्रतिपादन है । निष्ठापूर्वक कार्य ही मोक्ष का साधन बनता है | "योग की कर्मसु कौशलम् (गीता) (२) कबीर की यह मान्यता प्रकट है कि सभी जातियों के व्यक्ति अपने व्याव- सायिक् कर्मों को आध्यात्मक रूप प्रदान करके परम पद के अधिकारी बन सकते हैं | यही समन्वय एव तत्त्व दृष्टि है | वह स्वय जुलाहे थे और अपने कर्म को निष्ठापूर्वक करते हुए परमपद के अधिकारी बने ये । (३) इस पद में सभी जातियों के कर्मों का माध्नना-परक अर्थ किया गया है । व्यक्ति चाहे जिस सामाजिक स्थिति में हो उसे ईश्वर-भक्ति का पूर्ण अधिकार एव अवसर प्राप्त है । यह मान्यता भारतीय दृष्टिकोण के अनुरूप है । तुलना करें- (क) श्रेयंस्वधर्मो विगुण परघर्मारुस्वनुष्टितात् । स्वधर्मे निधन श्रेय परघर्मो भयावह. | श्री मदभगद्गीता, ३/३५