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विज्ञेष--(१)संडा मुरका का पाठाग्तर सठै भरकै भी है । तब अर्थ् हेगा --छ्डी मारकर गुरु ने जाकर शिकायत की ।

                 (२)इस पद मे क्बीर की भत्ति-पध्दति मवंथा सगुण भक्तो जैसी दिखाई देती है । इस आख्यान का अश्रथ  लेने से वह परम्परावादी अर्थ् मे गृहीत अवतार-वाद मे विश्वास रखने बाले प्र्तीत होते।परन्तु उन्के मूल जीवन-दर्शन को ध्यान रख्ते हुए उन्को सगुणोपासक मानना भूल होगी। बात यह है कि कबीर जनता को भगवान के प्रति आश्वस्त करना चाहते थे। इस्के लिये भगवान की अमोध शक्ति एवं शरणगतवत्सलता की चर्चा आवश्यक थी। इन पदो मे उसी की व्यंजना समभ्कना चहियए। 
        पारमार्थिक  द्रुष्टि से निर्गुण भक्त कबीर और तुलसी प्रभृति भक्तो मे कोइ अन्तर नही ठहरता है। दोनों के ही राम परमार्थतः निर्गुण निराकार राम है। विवेचन के स्तर प्रर दोनो ही पध्दतियां भिन्न है। परन्तु व्यव्हार के क्षेत्र मे वे फिर एक दुसरे के बहुत कुछ निकट आ जाते है। और एसा क्यो न होता? गोस्वामि तुल्सिदास ने स्पष्ट लिखा कहै कि-
           अन्तरजामिह् ते बडृ बाहर जामी ह्ँ प्रभु नाम लिये ते ।
              पंजि परे प्रह्लाद्हुँ को प्रकटे प्र्भु पाह्न ते न हिए ते ।
                        (३८०)
   हरि कौ नांउ तत त्रिलोक सार,
             लै लीन भये जे उतरे पार ॥ टेक ॥
   इक जंगम इक जटाघार , इक अंगि बिभुति करै अपार॥
      इक मुनियार इक मनहु लीन,एसे होत होत जग जात खीन ॥
      इक आराध सकति सीव,इक पढ्दा दे दे बधै जीव ॥
      इक कुलदेव्यां कौ जपहि जाव,त्रिभवनपति भुले त्रिबिध ताप ॥
      अनहि छाडि इक पीवहि दुध, हरि न मिलै बिन हिरदे सुध ॥
      कहै कबीर ऐसे विचार, राम बिना को उतरे पार ॥ 
   शब्दाग-- लं लीन==लवलीन । सकति==शाक्ति । सीव=शिव । पडदा = परदा ।
   संदभं-- कबीरदास राम भक्त की महिमा का वर्णन करते हैं।
   भावागॅ-- भगवान का नाम ही तीनो लोको मे एक मात्र सारतत्व हैं। जो इसमे लवलीन हुए वे भवासागर के पार उतर गये । साघुओ ने अनेक सम्प्रदाय वना रखे है। एक जगम है, दुसरा जटाघारी है। एक अपने शरीर मे अनाप-शनाप राख मल लेता है, तो एक मोन व्रत घारण करके अपने आप मे ही लीन वना रह्ता है। इस प्रकार होते-होते ससार मे भगवद-निष्ठा क्षीण होती जा रही है । एक शत्कि को उपासना करता है,तो कोई शिव को पुज्ता है, तो दुसरा परदे की ओट मे जीव ह्त्या करता है। एक कुल देवियो का जप करता है ओर इस प्र्कार लोग