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कबीर]

संदर्भ-- कबीर सच्चे योगी के लक्ष्णो का वर्णन करते है ।
भावार्थ-- वही सच्चा योगी है जो सहज भाव मे स्थित है अथवा जिसके 
मन मे प्रभु के प्रति स्वाभाविक प्रेम है तथा जो भगवान की प्रीति की ही याचना
करता है । जो अनाहद नाद का ही त्रृगी नाद सुनता है और जो काम-क्रोधादिक 
विषयो एव शास्त्रार्थ मे नही फँसता है । गुरु के द्वारा दिया गया ज्ञान ही उसके मन
को स्थिर करने वाली मुद्रा है । वह अपनी त्रिक्रुटी मे परम तत्व का ध्यान करता
है । वह ज्ञन को पवित्र् करने वाली ज्ञान-चर्चा रूपी जल मे स्नान करता है और गुरु
के ज्ञान को प्राप्त करके उसी पर ध्यान लगाये रह्ता है । वह अपनी काया-रूपी काशी
मे निवास करता है । वही पर उसके लिए परम-ज्योति स्वरूप भगवान प्रकाशित होते
है । वह ज्ञान रूपी मेखला को धारण करके सहज भाव मे स्थित रहता है । वह सुषुम्ना
के ऊपरी भाग मे स्थित वक नाल से भ्करने वाले अमृत रस का पान करत है । इसके 
लिए वह मूलाधार को बाँध देता है(योगी प्राणो की अग्नि से कुण्डलिनी को सीधा करके 
उसे सुषुम्ना मे प्रविष्ट करा देता है और मूल वध लगा देता है। यह अमृत का क्षण 
रोकन के लिए किया जाता है , क्योंकि कुण्ड्लिनी के सोते रहने पर भी अमृत क्षरित होता रहता) कबिर कहते हैं कि इससे क्षरणशील मधुर एवं तरल अमत मिश्री की तरह
सधन होकर स्थिर हो जाता है और योगी को अमरत्व प्रदान कर देता है।
 अलंकार--(१)रूपक--प्रीति की भीख। सबद ' नाद । मन ध्यान। काया कासी-ग्यान 
              मेखली।
           (२)पुनरुक्ति प्रकाश-लेते।
           (३)पदमंत्री नाद वाद। ग्यान घ्यान । वास परकास। भाइ खाइ।
              बन्द कन्द ।
 विशेष--(१)इस पद मे काया योग का वर्णन है।इसके लिए देखें टिप्पणी पद स०४।
         (२)त्रिकुटी देखे टिप्पणी पद स० ३,४७।
         (३)सहज-देखें टिप्पणी पद स० ७,१५५।
         (४)शरीर मे ही समस्त तीर्थों को मान कर कबीर ने वाह्चाचार का विरोध
            किया है।साथ ही उस पर तान्थिक साधना का स्पष्ट प्रभाव दिखाई
            देता है।
         (५)मन मुद्रा जाके गुरु को ध्यान--इस कथन के द्वारा तात्रिक साधना
            के वाह्चाचार के प्रति विरोध प्रकट है।तातपर्य यह है कि कबीर सब
            प्रकार की वाह्च सादना को ष्यर्थ समभ्कते है।वह तो उसी को सच्चा
            योगी मानते है जो आभ्यन्तर साधना का प्रथय ग्रहण करता है।
         (६)काया-कामी यहाँ भी काशीवास को लक्ष्य करके कबीर ने दम्भ का।