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१२] [कबीर]
बिगत मान,सम सतिल मन,पर गुन नहीं दोष कहोंगो। परिहरि देह-जनित चिन्ता,दुख-सुख समबुध्दि सहोंगो। तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि,अविचल हरि भक्ति लहोंगो। (गोस्वामी तुलसीदास) (३६४) माधौ सौ न मिले जासौ मिलि रहिये, ता कारनि वर कहु दुख सहिये॥टेका॥ छत्रधार देखत ढहि जाइ,अधिक गरब थे खाक मिलाइ॥ अगम अगोचर लखीं न जाइ,जहां का सहज फिर तहा समाइ॥ कहै कबिर भ्कुठे अभिमान सो हम सो तुम्ह एक समान॥ शब्दाथ-सो=स:,आत्मा अथवा परमतत्व।छत्रधारण करने वाला राजा।ढरि जाइ=नष्ट हो जाता हैं। संदर्भ-कबीरदास जीवन की नश्वरता का वर्णन करते हैं। भावार्थ-हे माधव,वह परम तत्व प्राप्त नही होता हैं जिससे तदाकार होकर रहना चाहिए,भले ही उसको प्राप्त् करने के लिए साधक को बहुत से दुःख सहने पडे। छात्र धारन करने वाले देखते ही देखते नष्ट हो जाते हैं। अधिक अभिमान के कारण व्यक्ति मिट्टी मे मिल जाता हैं। उस परम तत्व को प्रापत करना अत्यनत कठिन हैं,वह इन्द्रिय गम्य् नहीं हैं तथा उसको इन स्ठूल् नेत्रो द्वारा देखा भी नही जा सकता हैं।उसमें आत्मा का सहज स्वरुप जहाँ का तहाँ समाहित हो जाता हैं। कबीर कहते हैं कि बडप्पन का अभिमान सर्वथा मिथ्या हैं।हम और तुम सब एक ही तत्व हैं और परस्पर समान हैं। विशीश-(१) संसार की नश्वरता का वर्णन हैं। (११) निवेद संचारी की व्यजना हैं। (१११) एकत्व का प्रतिपादन हैं। व्यक्ति व्यक्ति की समानता तथा जीव और ग्रहा की एकता का प्रतिपादन हैं। (३६५) अहो मेरे गोब्यन्द तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तोर ॥टक॥ वान्धि भुजा भले करि डारयो,हस्ती कोपि मूंड मैं मारचौ॥ भाग्यौ हस्तो चीसा मारौ,वा मूरति की मैं बलिहारी॥ महावत तोकू मारो साटी,इसहि मराऊं घालों काटी॥ हस्ती न तोंर घरै धियांन,वाकै हिरदै बसै भगवांन॥ कहा अपराध संत हौ कीन्हां,वांधि पोट कुंजर कूं दीन्हां॥ कुंजर पोट वहु वदन करै,अजहूँ न सुभ्कै काजी अंधेरे॥