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कबीर

       शब्दार्थ--भीत= दीवाल । टाटी=परदा । इंचेरा= ऊँचहरा= ऊँचा घर,छते ।
       संदर्भ--कबीर जीवन की क्षणिकता का वर्णन करते हैं ।
       भावार्थ-- मैं दीवार अथवा परदा(ओट) किस लिए बनवाऊँ? पता नही इस शरीर की मिट्टी कहा गिरेगी ? मैं मन्दिर और महल किस लिए बनवाऊँ ?मरने के बाद तो यह शरीर उनमे एक क्षण भी नही रहने पाएगा । ऊँची-ऊँची छते भी मैं किस लिए डालूं । मेरा यह शरीर तो केवल साढ़े तीन हाथ लम्बा है।कबीरदास कहते हैं कि मनुष्य को इस शरीर के प्रति अभिमान एव ममता करके व्यर्थ बहुत स्थान घेरने का प्रयत्न नही करना चाहिए,गुजर भर के लिए जितना स्थान पर्याप्त हो,बस उतनी ही जगह लेना चाहिए । (मरने पर तो केवल कब्र मे ही सोना है।)
     अलकार--(१) गूढोक्ति--काहे  माटी ।
     विशेष--(१) "निर्वेद" की व्यजना है ।
     (२) जीवन की क्षणभगुरता की चर्चा द्वारा अपरिग्रह का उपदेश है ।
     (३)समभाव देखिए--
             कहा चिणावे मेडिया,लाँबी भीति उसारि ।
             घर यो साडे तीन हाथ,घना त पौनि चारि ।(कबीरदास)
                 (राग विलाबल)
                     (३६२)
     बार बार हरि का गुण गावै,
             गुर गमि भेद सहर का पावै ॥टेक।
     आदित करै भगति आरंभ,काया मंदिर मनसा थभ ॥
     अखंड अहनिसि सुरष्या जाइ,अनहद बने सहज में पाइ ॥
     सोमवार ससि अमृत झरै, चाखत बेगि तप निसतरै ।
     वाणीं रोक्यां रहै दुवार, मन मतिवाला पीवनहार ॥
     मगलवार ल्यौं माहीत, पंच लोक की छाड़ौ रीत ।
     घर छाड़ै जिनि बाहरि जाइ, नही तर खरौ रिसावै राइ ॥
     वुववार करै बुधि प्रकास, हिरदा कवल मै हरि का वास ।
     गुर गमि दोऊ एक समि करै, ऊरध पकज थै सूधा घरै ॥
     विसपति बिपिया देइ वहाइ, तीनि देव एकै सगि लाइ ।
     तीनि नदो तहाँ त्रिकुटी माहि,कुसमल घोवै अह निसि न्हाहि ॥
     सुक सुधा ले इहि व्रत चढ़े,अह निसि आप आप सूं लड़े ।
     सुरषो पच राखिये सवै, तौ दूजी द्रिष्टि न पैसे कबै ॥
     थावर थिर करि घट मै सोइ,जोति दीवटी मेल्है जोइ ।
     वाहरि भोतरि भया प्रकास तहाँ भया सकल करम का नास ॥