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भगवान का समझ कर उन्ही के लिए विलाओ। परन्तु इस प्रकार बिलोओ कि सारवस्तु(मक्खन रूपी तत्व) नष्ट न हो जाए। इस शरीर रूपी मटको मे मन रूपी दही को बिलोओ। उस मटकी मे प्राणा(II)समभाव के लिये देखे-

     जतन बिनु मिरगनि खेत उजारे।

टारे टरत नही निसि-बासुरि,बिडरत नही विडारे। अपने-अपने रस के लोभी,करतब न्यारे-न्यारे।

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बुधि मेरी किरषी,गुरु मेरो बिझुका अक्खिर दोइ रखवारे।

                                    (कबिरदस)
                      (३५४)

हरि कौ बिलौवनौं बिलोइ मेरी माई,

       एसें बिलोई जैसै तत न जाई॥टेक।

तन करि मटकी मनहि बिलोइ,ता मटकी मै पवन समोइ॥ इला प्यगुला सुषमन नारी,बेगि बिलोइ ठाढी छछिहारी॥ कहै कबीर गुजरी बौरांनीं,मटकी फूटीं जोति समांनीं॥

शब्दार्थ- विलोवना=विलोने कि वस्तु। छछिहारी=छाछ लेने वाली नारियाँ। गुजरी=गुजरी।

सन्दर्भ- कबीर आत्मा को सम्वोधित करके ज्ञान प्राप्ति की बात करते है। भावार्थ-हे सखि,तुम इस जीवन-रूपी विलोवने कोयाम रूप जल समो दो। इसको जल्दी-जल्दी बिलोओ। छाछ लेने वाली इडा,पिगला और सुषुम्ना रूपी नारियाँ खड़ी हुई प्रतीक्षा कर रही है। कबीर कहते है कि जीवात्मा रूपी गुजरी इस बिलोने की क्रिया मे आत्मविस्मृत हो गई। फलस्वरूप यह मटकी फूट गई-शरीर के बन्धन समाप्त होगये और उसकी आत्म चेतना रूपी ज्योति उस महान ज्योति के साथ,एकाकार होगई। सात का अनन्त मे लय होगया।

   अलंकार-सागरूपक-जीवन से भक्त्तिरस प्राप्त करने और दही विलौने के रूपक का निर्वाह है।

(II)रूपकातिशयोक्त्ति-बिलोवनो। विशेष-(I)हरि को विलौवना-ईश्वरापंण बुद्धि से जीवन-यापन करो। (II)तत-ज्ञान और भक्त्ति रूपी महारस। (III)पवन समोइ-जैसे दही मे मिलाया हुआ जल घी को दही से अलग कर देते है,वैसे ही प्राणायाम के प्रभाव से मन की वासनाओ का खट्टापन दूर हो जाता हे,और उसमे भगवद प्रेम की स्निग्धता प्रमुख हो जाती है। (IV)छछिहारी-इड़ा पिंगला एव सुपुम्ना की चर्चा कायायोग के अन्तगंत