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[कबीर
 

(३४५)

सति राम सतगुर की सेवा,
पूजहु रांम निरजन देवा ॥टेक॥
जल कै मंजन्य जो गति होई, मीनां नित ही म्हावै॥
जैसा मीनां तैसा नरा, फिरि फिरि जोनीं आवै।
मन मै मैला तिर्थ न्हांवै, तिनि बैकुण्ठ न जांनां।
पाखड करि करि जगत भुलांनां, नांहिंन राम अयांनां॥
हिरदै कठौर मरै बानारसि, नरक न बच्या जाई।
हरि कौ दास मरैजे मगहरि, सेन्यां सकल तिराई॥
पाठ पुरांन वेद नही सुमृत, तहा बसै निरकारा।
कहै कबीर एक ही ध्यावो, बावलिया संसारा

शब्दार्थ—सति=सत्य, सार रुप। मजनि=स्नान। जोनी आवै=जन्म लेता है। अयाना=अग्ज्ञानी। बनारसि=वाराणसी। बच्या=बचाया। सेन्या=सेना। पाठ=स्तोत्र—पाठ। बावलिया=पागल।

सन्दर्भ—कबीर कहते है कि अन्य समस्त साधनाओ को छोडकर केवल राम और सदगुरु की सेवा करो।

भावार्थ—राम और सदगुरु की सेवा ही सत्य एव सार है। हे साधक, तुम मायारहित देवता राम की पूजा करो। भला यदि जल मे स्नान मात्र से मुक्ति की प्राप्ति हो जाए तो मछली नित्य ही पानी मे स्नान के कारण मुक्त हो गई होती। बार-बार स्नान से जिस प्रकार मछली मोक्ष को प्राप्त नही होती है, उसी प्रकार बारम्बार मज्जन- माजंन करके मनुष्य भी मुक्त नही होता है और उसको बार-बार जन्म लेना पडता है। जिनके मन मे पाप विचार है और वे तीर्थ मे स्नान करते है, उनको बैकुण्ठ की हवा भी नही लगती है। जगत के जीव (तीर्थ व्रत, सेवा पूजा आदि)। विभिन्न पाखडो मे फँसे हुए व्यर्थ की बातो मे भ्रमित बने हुए है। परन्तु राम एसे अज्ञानी नही है, जो इन लोगो के पाखण्डपूर्ण व्यवहार को समझते न हो। जो लोग मन से निर्दयी है और काशी मे भी रहते है, वे लोग नरक से नही बच सकते। भगवान का सच्चा भक्त अगर मगहर मे भी मरते हैं, तब भी उनकी पुरी सेना भी (उनके सब साथी भी) भवसागर के पार हो जाते है। स्तोत्र-पाठ, पुराण-वाचन, वेदात्र्ययन और स्मृति-परायण, इनमे से कोई भी उस निराकार तत्व (परब्रह्म) का साक्षात्कार कराने मे समर्थ नही है। कबीरदास कहते है कि यह संसार तो विभिन्न देवताओ के आराधन एव अनेक साधनाओ के साधन मे पागल है। (कल्यण के इच्छुक साधको को) उस एक (मायारहित) परम तत्व का है ध्यान करना चाहिए।

अलकार—(i) गुढोक्ति—मन के . .नहाव।
(ii) उदाहरण—जैसा मीना. .आवै।