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ग्रन्थावली]
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बाह्म से भिन्न प्रतीत होता है। माया ही विद्या, पाठ और पुराण है। यह व्यर्थ का वाचिक ज्ञान भी माया ही है। पूजा करने के साधन पत्रादिक तथा पूज्य देव-माया ही हैं। माया रूप पुजारी माया रूप देवता की सेवा करता है। माया ही नाचती है और माया ही गाती है। माया ही अनन्त भेषो में अपने आपको प्रदर्शित करती है। माया के बारे में कहाँ तक कहूँ और उसके कितने रूपों का वर्णन करूँ? दान, पुण्य, तप, तीर्थ आदि जितने जो कुछ हैं, सब माया ही हैं। कबीर कहते हैं कि किसी विरले को ही माया सम्बन्धी यह बोध होता है। और वही माया का परित्याग करके माया रहित तत्त्व (निरजन) में लीन होता है (उसके प्रति अनुरक्त होता है)।

अलंकार—उल्लेख माया का विभिन्न रूपो में वर्णन है।

विशेष—प्रकारान्तर से शाकर अद्वैत के मायावाद का प्रतिपादन है। जो कुछ भी अभिधेय है, वह सब माया है। उससे अतीत एव केवल अनुभूति गम्य ही निरंजन तत्व है।

( ३३७ )

अंजन अलप निरजन सार,
यहै चीन्हि नर करहु विचार ॥टेक॥
अंजन उतपति बरतनि लोई, बिना निरंजन मुक्ति न होई॥
अंजन आवै अंजनि जाइ निरजन सब घट रह्यो समाइ॥
जोग धयांन तप सबै विकार, कहै कबीर मेरे रांम अधार॥

शब्दार्थ—अजन=माया, दृश्यमान जगत। बरतनि=बरतना, व्यवहार करना।

सन्दर्भ—कबीर कहते हैं कि माया रूप जगत मिथ्या है। केवल माया रहित तत्त्व ही सार तत्त्व है।

भावार्थ—माया अथवा माया जनित जगत अल्प एव मिथ्या है। निरजन (ब्रह्म) भूमा एव सार तत्व है। रे मानव, यह समझाकर चिन्तन करो अथवा इस प्रकार विवेक पूर्वक ब्रह्म को जानने के लिए चिन्तन करो। लोग माया के द्वारा ही उत्पन्न होते है और माया-जनित ससार में ही व्यावहार करते हैं। निरजन के प्रति अनुरक्त हुए बिना मुक्ति नहीं होती है अथवा निरजन अवस्था मे अवस्थित हुए बिना मोक्ष नही होती है। माया ही जन्म लेती है और माया ही मरती है अर्थात् यह आवागमन तो माया का ही है। यह माया रहित निरजन ही समस्त अन्त करणो में कूटस्थ रूप से अवस्थित है। जोग, ध्यान, तप आदि सब माया के ही विकार है। कबीर कहते हैं कि माया रहित राम ही मेरे आधार है अर्थात् उस परम तत्व की अनुभूति ही मेरा एक मात्र साधन और साध्य है।

अलंकार—अनुप्रास—'अ' की आवृत्ति होने के कारण।

विशेष—(1) शाकर अद्वैत का प्रतिपादन है। 'ब्रह्म-सत्य जगन्मिथ्या' का सरल शैली से प्रतिपादन है।