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७७६ ] [ कबीर



विशेष--- (१) इस पद मे साम्प्रदायिक भावना के ऊपर करारी चोट है ।

(२) कबीर का कहना है कि सभी सम्प्रदायों में भेद-बुद्धि है । अत: ये

अपने ईश्वर को एक विशेष रूप में सीमित करके देखते हैं ।

(३) विभिन्न शठदो के व्यायुत्पत्तपरक अर्थ देकर भूल धर्म-भावना के

उदृगेघन का प्रयास है ।

( ३३१ )

आऊँगा न जाऊँगा, मरू३गा न जीऊँगा ।

गुरु के सबद मैं रमि रमि रहूँगा ॥टेका॥

आप कटोरा आपै थारी, आपै पुरिखा" आपैपै नारी ।।

आप सदाफल आर्ष नींबू, आर्ष मुसलमान आप हिंदू ॥

आर्ष मछ कछ आर्ष जाल, आर्ष साँवर आर्ष कालं ॥

कहै कबीर हम नाही रे नांही, नां हम जीवत न भुवले मांही ॥

शन्दार्थ--मुवलेवा-=मरे हुए । सदाफल = नारिमल ।

सन्दर्भ- कबीरदास जीवन के मिव्यात्व द्वारा एक परम तत्त्व की सत्ता का

प्रतिपादन करते है ।

भावार्थ----. चैतन्य का प्रतिनिधित्व करते हुए कबीर कहते हैं कि मैं, न

जन्म लू३गा, न मरू'गा और न यह सामान्य जीवन ही व्यतीत करूंगा । मैं गुरु के

उपदेश द्वारा प्रतिपादित परम तत्व (राय) में ही रमता रहूँगा । आत्मा तत्व को

सव कुछ बताते हुए वह कहते है कि वहीं थाती है और वहीं कटोरा है । वह स्वय

ही पुरुष है, और वहीं नारी है । वहीं सदैव फलने वाला नारियल है, वहीं नीबू है,

वही मुसलमान है और वही हिन्दू है 1 वहीं मछली है, वहीं कछुआ है 1 वहीं उनको

फँसाने वाला जाल है, वहीं उस जाल को फैलाने वाला मछुआ है तथा वहीं उनको

मारने वाला काल है 1 कबीरदास कहते हैं कि हमारा कोई किसी प्रकार का

अस्तित्व नहीं है । हम न जीवित कहे जा सकते हैं और न मरे हुए ही कहे जा

सकते हैं । '

अलंकार--1) पद मैत्री…आइ३गा…जीऊँगा है मछ क्या ।

(2) पुनरुक्तिववाभाब--जाऊयगा मरू३गा ।

(3) उल्लेख-ड ही तत्व का विभिन्न रूपों से वर्णन होने के

कारण ।

(4) पुनरुक्ति प्रकाश-नाहीं रे न ऱही,

विशेष----, 1) समस्त दृश्यमान जगत (रूपात्मक जच्चात) के मूल में एक ही

तत्व की सत्ता बताकर "अबैत बाद' का प्रतिपादन है ।

(गौ आऊँगा ते-रहूँगा-अह चैतन्य सर्वव्यापी एव सदा रहने वाला तत्व

है 1 या उसका न आने का प्रान है और न जाने का, न अन्म का और न मरण

का । जड माया चैतन्य में विना गतिशील नाहीं हो सकती है । ज्जाड में गति, और