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गुरुदेव को अंग]
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सतगुरु लई कमांण करि, बांहण लागा तीर॥
एक जु बाह्या प्रीति सूँ, भीतरि रह्या शरीर॥६॥

सन्दर्भ—सतगुरु सच्चा सूरमा है। वह शब्दबाण मारने मे अत्यन्त् निपुण है उसने ऐसा शब्द-बाण मारा कि शिष्य का मर्म आहत हो गया और वह तत्व से पूर्णतया परिचित हो गया।

भावार्थ—सतगुरु ने हाथ में धनुष ग्रहण करके तीर बहाना (दया फेंकना) प्रारम्भ किया। एक तीर जो उसने बड़े प्रेम से मेरे प्रति संधान किया, वह मेरे शरीर में घर कर गया।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने सतगुरु को सूरमा के रूप मे व्यक्त किया है, जो तीर संधान करने में अत्यन्त कुशल है वह अनवरत रूप से शिष्य के प्रति जो शब्द-बाण को लक्ष्य करता रहा है। परन्तु एक शब्द-बाण उसने बडे़ हित और प्रेम से संधान किया। इस बाण से शिष्य का मर्म आहत हो गया और वह ब्रह्ममय हो गया।

शब्दार्थ—लई-ली, ग्रहण की। करि=कर–हाथ। बाहण=बहाने अर्थात्‌-फेंकने लगा। बाह्या=बहाया, फेंका। सरीर—शरीर।

सतगुरु साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक।
लागत ही मैं मिल गया, पड्या कलेजै छेक॥७॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में सतगुरु की एक और विशेषता का उल्लेख किया है। वह सच्चा सूरमा है। उसक लक्ष्य अचूक और अत्यन्त प्रभावशाली है। उसका बाण शब्द-बाण है। शब्द-बाण ने शिष्य के मर्म को आहत कर दिया है।

भावार्थ—सतगुरु सच्चा शूरवीर है। उसने मेरे प्रति एक ऐसे शब्द-बाण का अनुसंधान किया, किसके प्रभाव से मेरा मर्म आहत हो गया और मैं मेरा खोया हुआ अपनत्व मुझे सम्प्राप्त हो गया।

विशेष—शब्द बाण के लगते ही मेरा खोया हुआ अपनत्व प्राप्त हो गया। तात्पर्य है कि मैं जो माया के आकर्षक स्वरुप को देखकर आत्म विस्मृत हो गया था, सतगुरु के शब्द बाण के लगते ही पुनः आपने खोये हुए रूप को प्राप्त हो गया। मैं माया से आवृत्त होने के कारण अपने निर्विकार एवं निराकार स्वरुप को बिसर गया था पर सतगुरु को ऊपर से ज्ञान प्राप्त हुआ और मैं पुनः अपने मौलिक रूप में परिवर्तित हो गया। पड्या कलेजे छेक से तात्पर्य है कलेजा (पर मर्म) आहत हो गया