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७७४ ] [ कबीर
(२) विरोघाभास-करणी तें कारण का मिटना, करणी तें कारण का नास। उपजी च्यत-गई। ससिहर-गहै। (३)विषय-पावक मांहि पुहुप प्रकास,पुहुप माहि पावक प्र्र्र्रज रैं। (४)व्रत्यानुप्र्र्रस-करणी किया करम, पावक पुहुप प्रकास। पुहुप पावक प्रजर्ँ पाप पुन्य, भ्रौ भ्र्रम, भागा। (५) रूपक-वास-वासना, भ्रौ भ्रम। (६)शलेप-आज्ञान्त (७)यमक- कुल कुल, च्यत च्यत (८)भेद्कातिशयोक्ति की व्यजना-ऐसी भई। विशेष-(१)इस पद मे उलट वासी शैली की प्रतीकात्मकता दर्शनीय है। (२)प्रतीको के माध्यम से परम तत्व की अनुभुति दशा की सुन्दर व्यजना है।\ (३)इस पद मे कायायोग की साधना का सुन्दर वर्णन है। (४)चक- देखे टिपणी पद सख्या ४। २१० विकास देखे टिपणी पद सख्या ४। उलट बासी-देखे टिपणी पद स ० शुन्य गगन तथा निरजन- देखे टिप्पणी पद स १६४ । चिंतामणि- देखे पद स० १२३ । समभाव के लिए यह पद हण्टव्य है- अबलै नसानी, अब न नसहीं । राम क्रपा भय-निसा सिरानी, जागे पुनि न डसैहों । पायो नाम चारुचितामनि, उर कर त न खसैहों । स्यामरुप सुचि रुचिर कसोटी वित क्ंचनहिं । परवस जानि हस्यों इन इन्द्रिन, निज बस हो न हसहैं । मन मधुकर पन के तुलसी, रघपति- पद-कमल बसहो । (गोस्वामी तुलसीदास) (५) इस पद की कई पक्तियो के शिलष्ट प्र्योग से ग्यानयोग और कायायोग दोनो का निकलता है। परन्तु विशेषता यह है कि दोनो का प्रात्य भ्रम नाश,तथा ईशवर प्रेम है। (६६०) है हजुरि क्या दुरि बतावो दुंदर बाँधे सुन्दर पाव ॥टेक॥
सो मुलना जो मन सू लरै, अह निसि काल चक्र सू भिरे ॥ कामल चक्र का मरर्द मान, तो मुलना कू सदा सलाम ॥ फाजी सो जो काया विचार, अहनिसि व्रहा अगनि प्रजारे ॥