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ग्रन्थावली ] [ ७६६ को खोलकर ज्ञान प्रदान करता है, वही 'खुदा' है । जो चौरासीलाख योनियो का पालन-पोपण करता है, वही वास्तव मे 'रब' (ईश्वर) है। इतनी उदारता दिखाने वाला ही वास्तव मे करीम (दया करने वाला) है । गोरख वही है जो ज्ञान द्वारा प्राप्त तत्व का साक्षात्कार कर लेता है। जो मन की बात को अन्तर्यामी होकर ग्रहण करता है, वही महादेव है । सिद्ध पुरुप वही है जो साधना द्वारा इतने तत्वो को जानता है । 'नाथ' वही है जो त्रिभुवन (सर्वज्ञ) यती (सयतेन्द्रिय) बन कर रहता है। सिद्ध, साधु, पैगम्बर आदि जो भी हुए हैं, वे सब एक ही तत्व का जप करते हैं। उसके भेष तो भिन्न-भिन्न रहे हैं अर्थात् ये भेद तो बाहरी आडम्बर मात्र हैं। वह तत्व अपार है और उसके अगणित काम हैं । कबीर कहते हैं कि अनेक कामो द्वारा अभिव्यक्त वह एक परम तत्व ही भगवान है । अलकार-(1) छेकानुप्रास-- अलह, अलख, विष्णु विस्तार दस दर । (1) पुनरुक्तिप्रकाश--जुगि श्र गि। (14) वृत्यानुप्रास-सिध साई साधे। (iv) एक ही तत्व के अनेक नाम । (v) परिकरांकुर-कई नाम साभिप्राय है, जैसे अलह, अलख, करीम। विशेष-- (1) विष्णु आदि विभिन्न भगवान न होकर विभिन्न तत्व हैं । यह है कबीर की वैज्ञानिक बुद्धिवादी दृष्टि । (1) परमात्मा मायारहित है। जीवन की क्रियाएं माया द्वारा आवद्ध या ससीम है । इसी से परमात्मा की सेवा सम्भव नहीं है । उसका तो ध्यान मात्र ही किया जा सकता है। जो जहन में आगया, वह खुदा कैसे हुआ ? (11) उस एक परम तत्व के ही विभिन्न कार्यों के कारण विभिन्न नाम हैं। एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, पति, चाचा भाई आदि कहा जाता है। (iv) अद्वैतवाद का सुन्दर प्रतिपादन है। (v) इस पद मे कबीर ने विभिन्न सम्प्रदायों मे भगवान के लिए प्रयुक्त होने वाले विभिन्न कामो के मूल मे रहने वाली भावना का उद्घाटन किया है । वे भगवान के विभिन्न गुणों के बोधक शब्द हैं । जो जिस गुण का साक्षात्कर कर लेता है, वह उसी के आधार पर भगवान का नामकरण कर लेता है । इस प्रकार वे विभिन्न नाम इन गुणों की उपाधि से उमी एक तत्व के व्यजक है । प्रत्येक नाम के द्वारा उसी एक ही तत्व की उपासना ही वास्तव मे सच्ची उपासना है। शेप केवल साम्प्रदायिक आडम्बर मात्र हैं। इस प्रकार कबीर ने बौद्धिक दृष्टि से एव दार्शनिक आधार पर समस्त सम्प्रदाय के उपास्य एव उपासना मे तात्विक अभेद स्थापित किया है।