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अपना समस्त जीवन नष्ट कर दिया है ।ये लोग भव-सागर में आधे रास्ते पर पहुँच कर थक गये है और इनमे बहुत से तो इस भव-सागर में डूब चुके हैं। कबीर कहते हैं कि दयालु भगवान ने कृपापूर्वक मुझको आज्ञा दी है कि मैं भव -सागर मे डूबते हुए इन व्यक्तियों से कुछ को तो विवेक-बुध्दि दे दूं ।मैं कह-कह कर थक गया हूँ ।मेरी बात कोई नही सुनता है।अतः अब मुझको कोई दोष न दे (कि मै अपने कर्तव्य का पालन नही किया)। अलंकार-१)पदमैश्री-ना जानै,ना मानै,घाले चले। २)पुनरुक्ति प्रकाश-अपने अपने। ३)वृत्यानुप्रास-दई,दयाल,दया,करि काहूँ कूँ। ५)छेकानुप्रास-अति अभिमान। ६)रूपक-भौजलि। ७)पुनरुक्तिवदाभास-बहुत।अपार। विशेष-१)रग के राजा-मुहावरा है-तुमना करे- मारग सोइ जाकहँ जो भावा।पंडित सोइ जो गाल बजावा।

              (गोस्वामी तुलसीदास)

यह लोकोक्ति भी प्रचलित है- "अपनी अपनी ढफली और अपना अपना राग। २)विभिन्न साधनाओ मे पडे हुए मानव अपने जीवन को नष्ट करते रहते हैं-यही इस पद का अभिप्रेत अर्थ है।यही बात गोस्वामि तुलसीदास ने कही है- श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ सजुत बिरित बिवेक। जे परिहरहिं बिमोह वस कल्पहिं पथ अनेक। ३)कबीर को ज्ञानोपदेश की प्रेरणा भगवान की मगल-विधायिनी शक्ति से प्राप्त हुई थी।इस कथन मे कबीर का आत्म -विश्वास भी व्यक्त है,सथ ही उनकी गर्वोक्ति की छाया भी है।ये दोनो तत्व कबीर के व्यक्तित्व पर अच्छा प्रकाश डालते है।कबीर पूरे आत्म विश्वास के साथ यह मानते थे कि उन्हे आत्म-साक्षात्कार हो गया था तथा वेह परमात्मा के संदेश-वाहक थे। ४)कबीर ने उन लोगो पर गहरा व्यंग्य किया है जो प्रभू के स्वरूप को जाने बिना ही उसके विषय मे तरह-तरह की बातें कहते रहते है।

                             (३२६)

एक कोस वन मिलांन न मेला बहुतक भाँति करै फुरमाझस,है असबार अकेला॥टेक॥ जोरत कटक जुघेरत सब गढ़ करतय झेली झेला। जोटि कतक गढ़ तोरि पातिसाह,खेलि चल्यो एक खेला॥