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गुरुदेव को अंग

सतगुरु सवाँन को सगा, सोधी सई न दाति।
हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति॥१॥

सन्दर्भ—सतगुरु का व्यक्तित्व अद्वितीय असाधारण, समादरणीय और अत्यन्त कल्याणकारी है। वह मुक्ति और भक्ति का भण्डार है। वह हरिजी और हरिजन से भी श्रेष्ठ है।

भावार्थ—सतगुरु के समान कौन सा है, कौन अपना है। उसके समान कोई भी शोधक नहीं है। वह अमोघ, अजस्त्रदाता है। हरिजी अर्थात् भगवान की सदृश कौन हितैषी है और हरिजन अर्थात् वैष्णवजन के समान कोई जाति नहीं है, उसके समान कोई कुलीन नहीं है।

शब्दार्थ— सवाँन = समान, बराबर। को = कौन। सगा = स्वक् = अपना, अभिन्न। सोधी = शोधी—संशोधन करने वाला, शोधक। सईं = समान। दाति = दातृ—दाता, दानी। हितू—हितैषी।

बलिहारी गुरु आपणैं, द्यौं हाड़ी कै वार।
जिनि मानिप तैं देवता, करत न लागी वार॥२॥

सन्दर्भ—सतगुरु में दिव्य शक्ति है। उन्होंने हाड़ी के सदृश इस तुच्छ, हीन शरीर को दिव्यता प्रदान की। उनके प्रसाद से यह शरीर अब सार्थक हो गया।

भावार्थ—सतगुरु के श्री चरणों पर मैं अपने इस शरीर को अधम पचतत्वों से विनिर्मित शरीर को जो हाटी के सदृश निःसार है—शतशः बार न्यौछावर करता हुँ। सतगुरु को मुझ दोषों से अभिशप्त वासनाओं से ग्रस्त अधर्म प्राणी को दिव्यता प्रदान करने में बिलम्ब न लगा। यही उनकी महत्ता है।

शब्दार्थ—बलिहारी = न्यौछावर। आपसौ = अपने, मेरे। द्यौं = दूर कर दूँ। हाड़ी—मृतिका पात्र। कै = कितनी। कै बार=कितनी बार। जिनि = जिन—जिन्हें। मानिष = मानुष = मनुष्य। नै = ने। वार = विलम्ब।

सतगुरु की महिमा अनँत अनँत उपकार।
लोचन अनँत उघाड़िया अनँत दिखावण्हआर॥३॥

क॰ मा॰ फा॰—५