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ग्रन्थावली ]
(८)ऊठै नाही चालि -अन्तर्मुखी होने की ओर सकेत है । यथा - हाँ अपनायौ तब जानिहौं जब मन फिरी परिहै । तथा -सन्मुख होहि जीव मोहि जब ही ।जन्म कोटि अध नासहिं तब हो । ( गोस्वामी तुलसीदास ) ( १ )कौने देखी काल्हि। इस भाव को व्यक्त करने वाले अनेक कथन लोक मे प्रचलित है । यथा - ( क ) जिसके बीच मे रात । उसकी क्या बात ? (ख )सामान सौ बरस का, पल की खबर नही । ( ग)करना है सो आज कर ,आज करे सो अब । पल में प्रलय होयगी ,बहुर करेगा कब ? ( कबीर ) ( ३१३ ) भयौ रे मन पॉहुनडौ दिन चारि । आजिक काल्हिक मॉहि चलैगो ,लेकिन हाथ सँवारि ॥ टेक ॥ सौंज पनई जिनि अपणावै ,ऐसी सुणि किन लेह । यहु संसार इसौ रे प्रांणी ,जैसी घूंवरि मेह ॥ तन धन जोबन अँंजुरी कौ पानी ,जात न लागै बार । सैबल के फूलन परि फूल्यौ,गरब्यो कहा गबार ॥ खोटी खाट खरा न लीया ,कछू न जानी साटि । कहै कबीर कछू बनिज न की गै ,आयौ थौ इहि हाटि ॥ शब्दार्थ- पॉहुनडौ=पाहुना,मेहमान ।सौन =सम्पति । धूँंवरि =धुआँ । खाटै= सग्रह किया । साटि = विनिमय ।वनिज =व्यापार ।हाटि =बाजार । सन्दर्भ -कबीरदास जीवन की निस्सारता का प्रतिपादन करते हैं । भावार्थ - रे जीव ,तुम इस संसार मे चार दिन के मेहमान हो । आज-कल मे ही तुमको इस संसार से चला जाना है । फिर तुम अपने हाथों को बुरे कामों से क्यों नहीं हटा लेते हो ?तुम पराई वस्तुओं के प्रति आसक्त होने की चेष्टा मत करो ( यह संसार तुम्हारा घर नहीं है।और तब इसकी वस्तुएँ तुम्हारी क्यों कर हो सकती है ?) तु मेरी इस सलाह क्यों नही सुनता है ?रे प्रागो यह संसार तो धुँए के समूह द्वारा निर्गित बादल के समान है , जो न जल देता है ,न शीतलता । वह तो केवल धोखा ही है । शरीर ,सम्पति और योवन अजलि मे भरे हुवे जल के समान है ,जो धीरे -धीरे रिसकर स्वयं वे शीघ्र ही समाप्त हो जाता है । इस संसार का वैभव सैमर के फूल की तरह है जिसक वाह्म तो बहुत आकर्षक है, परन्तु जिसमे सारतत्व बिलकुल नही है । इस मिथ्या एवं सारहीन सांसारिक वैभव के ऊपर हे अज्ञानी 'तू क्यों गर्व करता है ?तूने विपय वासना रूपी खोटी वस्तुओं का तो संग्रह किया और ज्ञान -मुक्ति रूपी ,खरी वस्तुओं को ग्रहण नही किया । तुम्हे जीवन मे विनिमय करना नही आया अर्थात् तुम्हे यह ज्ञान नही हुआ