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                                                             { कबीर
   विशेष- (१)  नाथ पथ के ग्रतीको का प्रयोग है |
   
   (११) कायायोग की साबना की अपेक्षा भक्ति की  श्रेष्ठता एवं सुगमता का प्रतिपादन है|
    
    (१११) कुंडलिनी - देखे टिप्पणी पद सं० २१६|
      
    (१४) कायायोग की साधना के लिए देखे टिप्पणी पद संख्या ४ |
                             (२६६)
      भरथरी भूप भया बैरागी |
      विरह वियोग बनि बनि दूंढे, वाकी सुरति साहिब सौ लागी|| टेक||
      हसती घोड़ा गांव गढ़ गूडर, कंनडां पा इक आगी|
      जोगी हवा जांणि जग जाता, सहर उजीणी त्यागी ||
      छत्र सिंघासण चवर दुलंता राम रग बहु आगी |
      सेज रमैणी रभा होरी, तासौ प्रीति न लागी ||
      सूर बारी गाढ़ा पग रोप्या, इह बिधि माया त्यागी |
      सब सुख छाडी भज्या इक साहिबा, गुरु गोरख ल्यौ लागी||
      मनसा बाजा हरि हरि भाखै, गंध्रप सुत बड भागी| 
      कहे कबीर कुदर भजि करता, अमर भरगे अणरागी||
      
      शब्दार्थ - भूप = राजा| सुरति = लय, लगन| साहिब = स्वामी,ब्रहा|
      हसती= हाथी | गुंडर = गढी, छोटा किला| उजीडी= उज्जैन्| गाढ़ा= हढ| 
      रोप्या, लगाया| कुदर= कुदरत, ईश्वरीय शक्ति|
      संदर्भ- कबीरदास राम-भजन की महिमा का वर्णन करतें है|
      भावार्थः - राजा भतहरि बैरागी हो गया | उसकी लगन ब्रह्म से लग गई थी और वह भगवान के वियोग मे विरह-दुःख से पीड़ित होकर अपने प्रभु को वन वन ढूढता फिरा| हाथी, घोड़ा, ग्राम, किला गढ़ी, ऐश्वर्य आदि उपकरण उसके लिए अग्नि स्वरुप थे| समस्त समार जानता  है कि वह जोगी हो गए थे और उन्होनें ( अपनी राजघानी) उज्जन नगर का त्याग कर दिया था| उनके पास छात्र, सिंहासन चारो ओर डोलते हुए अनेक प्रकार के राग रग तथा शैय्या

पर रमभा जैसी मुन्दरी रमणिय थी| उन सबके प्रति वह राजा आस्तिक नही हुआ| उन सबके विरोध में उस वीर शूरमा ने अपने पावं हढ्ता पूर्वक जमा दिये अथार्त् उनका आकर्षण् उसको टस से मस नही कर सका ओंर इस प्रकार उसने माया( समस्त आस्त्कियो ) का परित्याग कर दिया| उसने समस्त सांसारिक सुखो को त्याग कर एक भगवान का भजन किया|और गुरु गोरखनाथ मे ही अपनी लौ लगा दी| मन और वाणी से उसने भगवान का भजन किया| वह गधंप सुत बड़ा ही भाग्यशाली था कबीर कहते हैं कि वह ईश्वर के प्रति अनुरक्त राजा ईश्वरीय शक्ति का स्मरण करते हुए अमर पद को प्राप्त् हुआ|