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जातीयता

कबीर साहित्य की तृतीय महान परम्परा जातीयता है। अपनी वाणी द्वारा कबीर ने देश की एक महान सांस्कृतिक चेतना में बाँध दिया था। देश के प्रत्येक क्षेत्र में महान सांस्कृतिक चेतना के फल स्वरूप जातीयता का विकास हुआ। उनकी भाषा में समस्त भाषाओं विभाषाओं और बोलियों का मधुर मिश्रण है। उन्होंने व्याकरण के नियमों की ओर भी ध्यान नहीं दिया। जिससे स्पष्ट हो जाता है कि जनता के सम्मुख केवल अपने भावों की अभिव्यक्ति ही करना चाहते थे। काव्य रचना की ओर उनका ध्यान न था। इनमें सन्देह नहीं कि उनकी लेखनी मुख से निकले हुए शब्द हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बन गए हैं।

कबीर की वाणी का प्रभाव जनता पर पड़ा। क्योंकि उनकी भाषा में पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, ब्रज, अवधी खड़ी बोली, आदि के उदाहरण मिलते हैं।

जातीयता का विकास सामन्ती शृंखलाओं के छिन्न-भिन्न हो जाने पर ही हुआ। कबीर जनता की मनोवृत्ति से भली भाँति परिचित थे। वे यह अच्छी तरह जानते थे कि शासक वर्ग की सभ्यता संस्कार और जातीयता का जनता से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है, वरन् सामन्ती जातीयता मानव के विकास में वाधक है। जनता की संस्कृति और जातीयता का सम्बन्ध सर्वथा दूसरे वर्ग से है। परन्तु कबीर ने जातीयता के प्रचार लिए रूढ़िवादी साधनों को दूर कर नवीन साधनों को अपनाया है। जातीयता का प्रसार कबीर ने भाषा द्वारा किया है।

भाषा को जातीयता का गौरव पूर्ण अंग जीवन प्रगति माना। कबीर के शब्दों में भाषा का गौरव निम्नलिखित है:—

'संस्कीरति है कूप जल भाषा बहता नीर'

जीवन भर वह इसी बात का प्रयत्न करते रहे कि संकुचित क्षेत्र से निकल कर विस्तृत क्षेत्र में जनता जातीयता के अर्थ समझ सके। सन्त कबीर समस्त प्रकार की संकीर्णता के विरोधी थे। इसीलिये उन्होंने एक ऐसी वृहत्तर भावना का प्रतिपादन और स्थापना की जो जनता के निकट और जनता के लिए सर्वथा उपयोगी थी।

प्रगतिशीलता

कबीर साहित्य की चतुर्थ महान परम्परा है प्रगतिशीलता। सामान्यतया प्रगतिशीलता का अर्थ होता है स्पन्दनशीलता, उत्तरोत्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर रहना।