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(v) अनुप्रास- भरम,भोयन भीनौ।
(vi) श्लेष पुष्ट रूपक- मसि। (vii)विरोधाभास- अचल है याके।
विशेष-- (i)ज्ञान दशा का मार्मिक वर्णन है।
(ii)तार्थ भरिया-समभाव देखैं-
अध जल गगरी छलकत जाए। (iii) मन का मर्दल न बजाना और ताल न देना विविध जागतिक कार्यों के लिए उसका सहयोग न देना है । चित्त के घट का भरना सतोष से पूरित होना है । मन के मर्दल के भीगने का तात्पर्य उसका शिथिल होना है । सग के लोग विषय विकार है अथवा संसार के सम्वन्धी भी हो सकते हैं ।
(iv) ज्ञान और भक्ति का समन्वय ही जीवन की सार्थकता है । यही कबिर का दर्शन है । कबीर जीवन के सामान्य किया वलापो के प्रति नवीन दृष्टी उत्पन्न करना ही ज्ञान-प्राप्ति का लक्षण मानते हैं । (v) तुलना कीजिए - अबलों नासानी, अब न नसैहौं । राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे पुनि न ड्सैहौं । पायो नाम चारु चिंतामनि,उर करते न खसेहौं । स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसंहौ । परवस जानि हैस्यो इन इन्द्रिन, निज बस ह न हेसैहौं । मन मधुकर पन के तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं । (गोस्वामी तुलसीदास)
तथा- अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल । ' काम-क्रोध को पहिरि चोलना, कण्ठ विषय की माल ।
X X X सूरदास की सबै अविधा, दूर करौ नन्दमला (२८२) अब क्या कीजै ग्यांन बिचारा, निज निरखत गत ब्यौहारा जाचिग दाता इक पाया, धन दिया जाइ न खाया । कोइ ले भरि सके न मूका, औरनि पै जाना चूका ॥ तिस बाइ न जोव्या जाइ, वो मिलै त घाल खाई । वो जीवन भला कहाई, बिन म वां जीवन नाहीं ॥ घसि चदन बनखडि बारा,बिन नैननि रूप निहारा ॥ तिहि पूत बाप इक जाया, बिन ठाहर नगर बसाया ॥ कहै कबीर सो पाया, प्रभु भेटत आप गंवाया ॥