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७१०] [कबीर

                              (२७५)

कैसै तू हरि कौ दास कहायौ,

             करि बहु भषेर जनम गवायौ ॥ टेक ॥

सुध बुध होइ भज्यौ नहि सांई, काछयौ डयंभ उदर कै तांई ॥ हिरदै कपट सू नही साचौ, कहा भयौ जे अनहद नाच्यौ ॥ झूठे फोकट कलू मंझारा, रांम कहैं ते दास नियारा ॥ भगति नारदी मगन सरीरा, इहि बिधि भब तिरि कहै कबीरा ॥

   शब्दार्थ - काछ्यौ= वेप धारण किया। डयम= दंभ, पाखण्ड। उदर के ताई= उदरपूर्ति के लिए। अनहद= अनाहत नाद के नाम पर अथवा बेहद। कूल= कलियुग। नियारा= न्यारे, अनोखे।
   सदर्भ - कबीरदास नारद द्वारा प्रतिपादित प्रेमा भक्ति का प्रतिपादन करते हैं।
   भावार्थ - रे साधु का वेष धारण करके अपने आपको भक्त कहने वाले प्राणी। तुम अपने भगवान का भक्त क्योकर कहलाते हो?

तुमने तो तरह-तरह के अनेक वेष धारण करके अपना सम्पूर्ण जीवन नष्ट किया है। तुमने कभी भी शुद्ध बुद्धि द्वारा भगवान का भजन नही किया। तुमतो उदर पूर्ति के निमित केवल पाखण्ड करके अनेक वेष धारण करते रहे हो। तेरे ह्रदय मे कपट है और तुमने भगवान से कभी सच्चा प्रेम नही किया है। यदि तू केवल दिखाने के लिए ह्रदय मे उठने वाले संगीत का नाम लेकर तरह तरह से नाचता रहा है, तो इससे क्या लाभ है? इस झूठै एव निस्मार कलियुग मे राम का नाम लेने वाले सच्चे भक्त और ही होते है अर्थात् भक्तो के लक्षण न्यारे ही होते है। कबीर कहते है कि अपने शरीर को नारद द्वारा कथित प्रेमा भक्ति मे तन्मय करो और इस प्रकार इस ससार-सागर के पार हो जाओ।

   अलंकार - (I) गूदोक्ति - कैसे कहायो।
           (II) पदमैत्री - सुध बुध।
           (III) वक्रोक्ति - कहा भयौ नाच्यौ।
           (IV) भेदकातिशयोक्ति - दास नियारा।
           (VI) रुपक - भव।
   विशेष - (I) अनहद - देखें टिप्पणी पद स १५७।
   (II) वाहयाचार का स्पष्ट विरोध है।
   (III) इस पद मे कबीर "नारदी भक्ति" की चर्चा करते हुए वैष्णव भक्तो के एक दम निकट आ जाते हैं। कतिपय आलोचको के मतानुसार 'भगति नारदी' से कबीर क तात्पर्य 'नारद-भक्ति-सूत्र' मे वर्णित भक्ति के प्रकार से नही है। परन्तु हमारे मनानुमार कबीर का तात्पर्य 'नारद भक्ति सूत्र' मे वर्णित भक्ति-पद्धति से ही