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ग्रेन्धवली ]

               (२७७)

काया मजसि कौन गुनौ,

         घट भीतरि है मलना ॥ टेक ॥

जौतु हिरदै सुध मन ग्यांनों,तौ कहा बिरोलै पांनी। तू बी अठसठि तीरथ न्हाई, कड़वापन तऊ न जाई॥ कहै कबीर बिचारी, भवसागर तारि मुरारि॥

    शब्दार्थ - मजसि= मज्जसि, धोता है। कौन गुना= किस उपयोग के लिए। बिलोलै= बिलोडित करता है, मथना अर्थात् पानी मे से किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयत्न करना। तूबी= तु बी, कडवी लौकी।
    सदर्भ - कबीर वाहाचार की निरर्थकता का प्रतिपादन करते हैं।
    भावार्थ - पूजा-पाठ आदि वाहाचारो मे लिप्त व्यत्तियो को सम्बोधित करते हुए कबीरदास कहते है कि "तुम्हरे शरीर के भीतर तो मैला भरा हुआ है। तब फिर तुम शरीर को बाहर से क्यो धोते हो? अभिप्राय यह है कि जब ह्रदय के भीतर विषय-वासना रूपी मैल भरा हुआ है, तब तीर्थो मे मल मल कर स्नान करने से कोई लाभ नही है। यदि तुम ह्रदय से शुद्ध और विवेक पूर्ण मन वाले हो, तब फिर तुम इन तीर्थों के जल को मथ कर क्या प्राप्त करना चाहते हो?

अभिप्राय यह है कि जल को मथने पर कुछ भी हाथ नही लगता है। जल-मथन तो वही करता है जो एक दम मूर्ख होता है। अत: जो तीर्थो मे स्नान करके मोक्ष की आशा करते है, वे निरे अज्ञानी है। विवेकी ऐसा मूर्खतापूर्ण व्य्वहार कदापि नहि करेगा।

           जल मे स्नान करके मोक्ष की आशा करने वालो को लोक-व्यवहार का दृष्टात देकर कवि समझता है कि कडुवी लौकी जल मे तैरती हुई इधर-उधर अनेक तीर्थो मे भले ही स्नान करले, परन्तु उसका कडुवापन नही जा पाता है। इसी प्रकार तीर्थ-स्नान से मानव मन की वासनाओ का मैल समाप्त नही हो पाता है।

कबीर कहते हैं कि इन्ही सब बातो का विचार करके मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि हे मुरारि, तुम मुझको इस संसार रूपी सागर से पार उतार दो अर्थात् आवागमन के चक्र से मेरा उद्धार कर दो।

    अलंकार - (I) गढोक्ति - काया गुना, जोत पानी।
            (II) हष्टात - तूबी जाई।
            (III) विशेषोक्ति - तऊ न जाई। 
            (IV) रूपक - भवसागर।
            (VI) परिकराकुर - मुरारि।
    विशेष - (I)लक्षण - विरोलै पानी।
    (II) वाहाचार का विरोध है।
    (III) पाठान्तर - हिरदै कपट मुख ग्यानी। झूठै कहा बिलोवासी पानी।