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प्रत्थावली ] [७०७

(ख) हमारे प्रभु आँगुन चित न धरौ ।

           इक लोहा पूजा में राखत इक घर बधिक परो। 
           सो सुविधा पारस नहिं राखत, कंचन करत खरो।
           इक नदिया इक नारि कहावत, मैलो नीर भरो। 
           जब मिलिगे तब एक वरन भे, सुरसरि नाम परो।  
                                      (महात्मा सूरदास)
  
                      (२७५)
          रांम राइ भई बिकल मति मोरी,
          कै यहु दुनी दिवानी तेरी॥ टेक॥
          जे पूज हरि नांहि भावै सो पूजनहार चढ़।वै॥
          जिहि पूज हरि भल मांनै, सो पूजनहार न जांनै॥
          भाव प्रेम की पूजा, ताथै भयौ देव थै दूजा॥
          का कीजै बहुत पसारा, पूजी जै पूजनहारा॥
          कहै कबीर मै गावा, मै गावा आप लखावा॥
          जो इहि पद माहि समांना, सो पूजनहार सयांना॥
        शब्दार्थ - बिकल = व्याकुल, खराब। दुनी= दुनीयाँ। दिवानी= दीवानी, पागल। पूजनहार = पूजने   वाले, पूजारी लोग। 
        सदर्भ - कबीर का कहना है कि साधक मानव को शुद्ध, आत्म स्वरूप की आराधना करनी चाहिए।
        भावार्थ -हे स्वामी राम, मेरी बुद्धि ही खराब हो गई है अथवा तुम्हारी यह सारी दुनिया ही पागल है। भगवान को जो सेवा-पूजा प्रिय नही है, उसी प्रकार की पूजा उसको पूजने वाले करते हैं। जो पूजा भगवान को प्रिय है उस पूजा को ये पूजने वाले जानते ही नही हैं। भावपूर्वक एथ प्रेमपूर्वक पूजा करने के लिये ही जीव यहा से पृथक हुआ है अथवा प्राणी का जन्म हुआ है। बहुत अधिक बातें बनाने से क्या लाभ है। पूजने वाले को अपने शुद्ध स्वरूप - शुद्ध बुध्द आत्मा की पूजा करनी चाहिए। कबीर कहते हैं कि मैने इस पूजा के वास्तविक रहस्य को गाकर स्पषठ कर दिया है। जो लोग इस पद मे किये गए वर्णन के अनुसार प्रभु की अराधना करते हैं, वे ही ग्यानी एवं चतुर पूजने वाले हैं। 
      
      अलकार - (१) सदेह - कै तेरी । 
              (२) विषम की व्याथ्ना - जे पूज चहावै । 
              (३) रूपक - भाव - प्रेम की पूजा। 
              (४) गूढोती- का कीजै **** पसारा। 
      विषेश - (१) अद्वैत मत का काव्य मय प्रतिपादन है।
            (२) बाहाचार का विरोध व्यजित है।