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ग्रन्थावली] [७०३

       (२)रूपकातिशयोक्ति - विप।
       (३)पुनरूक्ति प्रकाश - वनि वनि।
       (४)निदर्शना - पानी आगि न लागै।
       (५)द्दप्टान्त - जे तुम्ह भीजै।

विशेष -(१) इस पद पर उपनिपद की प्रशनोत्तर शैली के द्वारा ज्ञान तत्त्व का प्रतिपादन है।

(२)इसमे कबीर के चरित्र की शुद्धि एव द्ददता व्यज्ति है। (३)ना किसी का दैना समभाव देखें- काहू की बेटी सो बेटा न व्याहब काहू की जाति त्रिगारौ न सोऊ। माँगि कै खैवो मसीत को सोइबौ, लेबे को एक न देबै को दोऊ।

                                              (गोस्वामी तुलसीदास)
               (२७१)
       ताकू रे कहा कीजै भाई,
            तजि अमृत विषै सू ल्यो लाई॥ टेक॥
       विष सग्रह कहा सुख पाया,
            रचक सुख कौं जनम गँवाया॥
       मन बरजै चित कह्यौ न करई,
            सकति सनेह दीपक मै परई॥
       कहति कबीर मोहि भगति उमाहा,
             कृत करणीं जाति भया जुलाहा॥
शब्दार्थ - सकति = आसक्त्त्ति।
सन्दर्भ- कबीरदास कहते है कि आसक्ति के वशीभूत जीव अपना जीवन नष्ट कर देता है।

भावार्थ- उस व्यक्ति के लिए क्या किया जाए अथवा उसको किस प्रकार समक्भाया जाए, जो राम-भक्ति रूपी अमृत को छोड़ कर विपयासक्ति रूपी विषय के प्रति आकर्षित रहता है? जीव को इन्द्रिय भोगो के सग्रह से क्या सुख मिल सकता है? ऐसा व्यक्ति जरा से क्षणिक सुख के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन को नष्ट कर देता है। मन(विवेक बुद्धि) के मना करने पर भी उसका प्रवृत्यात्मक चित नही मानता है और वह आसक्त्ति के वशीभूत होकर विपयरूपी दीपक मे गिर जाता है। कबीर कहते है कि मेरे हृदय मे भक्ति का उत्साह जाग्रत हो गया है। जाति का जुलाहा मैं अपने कर्मों के द्वारा कृत-कायं हो गया हूं। अर्थात्, मैं जुलाहा जैसी निम्न जाति मे भले ही उत्पन्न हुआ, परन्तु भक्तिपूर्ण आचरण करके मैंने अपना जीवन सार्थक कर लिया है।

     अलकार- (१)गूढोक्ति - ताकू भाई, विष पाया।
             (२)विशेषोक्ति की व्यजना - मन   करई।