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६६२] [कबीर

    कहे कबीर मै जांनां, मै जांनां मन पतियानां॥
    पतियानां जौ न पतीजै, तौ अंधै कू का कीजै॥
  शब्दार्थ-- गँवारा= अज्ञानी, मूर्ख। पच चोर=पाँच विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर)। गढ= शरीर रूपी दुर्ग। मुहिकम= हढ, वस्तू। मति= बुद्धि। 
  संदर्भ-- कबीरदास कहते है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए मन की शुद्धि परम आवश्यक है।
  भावार्थ-- हे मूर्ख जीव। भगवान का नाम क्यो नही लेता है? तू इस बारे मे बार-बार क्या सोचता हे? अथवा तू यह क्यो बार-बार सोचता है कि सांसारिक चिंताओ से मुक्त होने के लिए क्या करना चीहिए। इस शरीर-रूपी दुर्ग मे काम, क्रोध, लोभ, मद एव मत्सर रूपी पाँच चोर हैं। ये इसको दिन-रात लूट रहे है। अगर दुर्ग का स्वामी मज्बूत हो, तो दुर्ग को कोई नही लूट सकता है। अभिप्राय यह हे कि ये पच विकार जीव की चेतना एव स्व-स्वरूप-स्थिति की क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। यदी जीव-चैतन्य अपने स्वरूप पे हढता पूर्वक स्थित रहे, तो इसकी क्षमता को कौन नष्ट कर सकता हे? अविद्या रूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए ज्ञान रूपी दीपक चाहिए। उसी के द्वारा अगोचर परम तत्व की प्राप्ति होती है। इस परम तत्व के साक्षात्कार मे यह ज्ञान रूपी दीपक भी इसी परम तत्व मे समाहित हो जाता है। अगर कोई उस परम तत्व का साक्षात्कार करना चाहता है, तो उसे अपने जन्त करण रूपी दर्पण को स्वच्छ बनाए रखना चाहए। जव दर्पण ऊपर मैल जम जाता है-- जब अन्त करण मलिन हो जाता है, तब उस परम तत्व का साक्षात्कार नही होता है। पढ्ने और मनन (स्वाध्याय) करने से मतवाद करने से क्या होता है? वेद-पुराण सुनने से क्या होता है? पढने एद मनन करने से मतवाद रूपी अहंकार उत्पन्न हो जाता है और तब परम तत्व का साक्षात्कार सम्भव नही होता है। उनको साक्षात्कार मुक्तो तो सहज भाव से हो गया है। अथवा यह कहिए कि जो ज्ञान