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६८५ ग्रंथावली ]

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रे दिल खोजि दिलहर खोजि, ना परि परेसांनी मांहि । महल माल अजीज अंरैरांते, कोई दस्तगीरी क्यूं नांहिं ।।टेक। । पीरां मुरीदां काजियां, मुलां अरू दरवेस । कहां थे तुम्ह किनि कीये, अकलि है सब नेस ।। कुराना क्रतेवां अस पढि पढि, फिकरि या नही जाइ । टुक दम करारी जे करें, हाजिरां सूर खुदाइ ।। दरोगां बकि हूहिं खुसियाँ, वे अकलि बकहिं पुमाहिं । इक साच खालिक म्यानै, सो कछू सच सूरति मांहि ।। अलह पाक तु, नापाक क्यू अब दूसर नांहीं कोह । कबीर करम करीम का, करनी करै जानै सोइ ।। शब्दार्थ-दिल हर= प्रियतम । सहर शहर । माल=धन-दौलत । अजीज = अजीज, प्रियजन । दस्तगीरी=हाथ पकडने वाला, सहायक । पीरा=गुरु। मुरीदा= चेला । काजी= मुसलमान न्यायाधीश जो शरा के अनुसार मामलों का निर्णय करे, निकाह पढाने वाला मौलवी । मुला=मुला , मसजिद म रहने या नमाज पढाने वाला, मांरेजद, की रोटियाँ खानेवाला । अकलि है सर नेस (नेस्त ।, नेस्त= नष्ट, विवेक शून्यता । दरवेस = दरवेश, फकीर । कतेर्वा=-=कितावें । टुक = जरा, थोडा । दम करारी-, दम का वैय, आत्म-नियन्त्रण । सूरवायआनद । हाजिरा८न्द्र८ उपस्थित, स1क्षात्कार । दरोग केन्द्र झूठा । हहि खुसिया = खुशी होते है । वेप्रकलि=८ मूरर्व । पुमाहि: प्रमत्त, गर्व करते है । सचु-चव-सत्य । साबु ८ सत्यता 1 खलक:- सृष्टि । खालिक-य-पुष्टि कर्ता । स्थाने प्रा-रा मे, मध्य । सैल = सकल, समस्त । सूरत= रूप । पाक=पवित्र । नापाक = अपवित्र । कर्म=करम दया । करीम =दयालु । संदभं-कबीरदास मुसलमानों के वाह्यग्रचार का विरोध करते है और ब्रह्मवाद का प्रतिपादन करते हैं । भावार्थ - रे हृदय (मन), तू अपने आपको खोन और उसकों खोज जो इस दिल में रहता है । अर्थात् तू अपने प्रियतम को खोज । (व्यर्य की) अन्य परेशानियों में मत पडे । सहर, धन-दौलत, प्रियजन, पत्नी कोई भी तेरा सहायक नही है । हे पीरो (घर्म गुरुओं), चेलाओ,काजियो, मदिजद की रोटियाँ खाने वाले मुल्लाओं तथा खुदा के नाम पर दर-दर भीख माँगने वाले फकीरों, तुमको कहाँ से और किसने बनाया है ? तुम्हारी सब अक्ल मारी गई है अर्थात् तुम्हारी सव वातें विवेक शुन्य हैं । कुरान तथा अन्य घर्म ग्रन्थों को पढ पढ कर तुम्हारी चिन्ताएँ दूर नहीं हो सकती हैं । जो अपने ऊपर थोडा सा नियन्त्रण कर लेते है, उन्हें ईश्वरीय आह्नरद का साक्षात्कार हो जाता है है मिथ्या वातो अर्थात् शास्त्र की बातो को बक बक कर लोग प्रसन्न होते है । अज्ञानी व्यक्ति ही इस प्रकार की बाते करके गव करते हैं । जिस प्रकार 'सत्य' ने सहयता निहित होती है, उसी प्रकार सृष्टि समाई हुई है और