यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
कबीर हो जायेँ(अथवा राम भक्ति के बिना समस्त साधनायेँ व्यर्थ है । मूर्ख लोग चाहे जितना उनका पालन करे । सारा जप-तप झूठा,सम्पूर्ण शस्त्र-ज्ञान व्यर्थ है । राम की भक्ति के बिना समस्त ध्यान एव साधना झूठी है । शस्त्रों के द्वारा निर्धारित विधि-निषेध, पुजा-वाचार का कोइ आन्त नहीं है । ये सब नदी मे दुबा देने योग्य है । स्वर्थी व्यक्तियों ने इन्द्रियो के भोग एव मन को प्रसन्न करने के लिये अनेक 'वदो' और पुजा पद्धतियो का विकास कर रहा है । कबीरदास कहते है कि इसी मे मैने समस्त भ्रमो को नष्ट करके और अन्य प्रकार कि भावनाओं से मुँह मोड कर भगवान मे अपना मन लगा दिया है ।
अलंकार--जुढोक्ति एवं विशेपोक्ति की व्यंजना - विशेष---प्रथम चरण । वाह्वाचार का विरोध है । सच्ची भक्ति क प्रतिपदन है । (२५३) चेतनि देखै रे जग घघा । राम नाम का मरन न जांनै, माया कै रसि अ घा ॥ तेक ॥ जनमत हीरू कहा ले आयो, मरत कहा ले जासी । जैसे तरवर वसत पखेरू, दिवस चारि के वासी ॥ आपा थापि अचर कौ निंदै,जन्मत हीं जड़ काटी । हरि की भगति बिनां यहु देहि धव लोटै ही फाटी ॥ काम क्रोध मोह मद मच्छर, पर अपवाद न सुणियें । कहे कबीर साध की संगति,राम नाम गुण भणिये ॥ शब्दर्थ-- वसत= बसते है । परोर=पक्षी । थापि= स्थापना करके, बढ़ाई करके । धय लौरे=देह घौलोरे=दौड धूप । फाटी=विदीर्ण हो गई ,नष्ट हो गई । भणिये=कहिये । सन्दर्भ--कबीर का कहना है कि जीव को सांसार के प्रपच त्याग कर राम की भक्ति करनी चाहिये ।