यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सन्दर्व--- कबीर राबको झूठा कहकर भगवान के प्रति अनुरक्त होने को कहते है ।

  भावार्थ--- हे मनुष्य तेरा ऐसा स्वाभाव बन गया है कि तुझे झूठ ही मधुर लगता है अथवा हे मनुष्य तेरी वृत्ति मिथ्या आनन्दो मे अत्यधिक् रमती है । फल यह हुआ कि तू मत्य् से सत्यानन्द से पराड मुख हो गया । इस मिथ्या विषय-वासनाओ मे पड गया । इसी को लक्ष्य करके कबीर कहते हैं कि इस मिथ्या संसार ने उसके लिये झूठी विषय-वासना रूपी थाली रूपी भोजन तैयार किया । माया रूपी झूठी थाली मे झूठा भोजन परोसा गया और झूठे जीव ने उसमे विषय्-वासना रूपी झूठे भोजन का भोग किया । यह उठना-बैठना एवं समस्त सम्बन्ध झूठे (परमार्थत:मिथ्या) है । इस प्रकार झूठे रंग मे झूठा अनुरक्त हो गया है । वह सत्य तत्व पर विश्वस नही करता है । कबीर कहते है कि हे खुदा के बच्चो (परमात्मा के पुत्रो ) । तुम परम तत्व स्वरूप सत्य मे मन लगाओ और इस मिथ्या संसार के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग कर दो । इसी से तुमको मन वाच्छित फल (मोक्ष)की प्राप्ति होगी ।
    अलंकार--(1) रूपकातिशयोक्ति एवं यमक की व्यंजना-- झूठा' । 
    विशेष -- (1) जगत, जीव-भाव, विषय-वासना आदि सबको 'मिथ्या' कहने वाले कबीर ने प्रकारान्तर से शकर के 'मायावाद' का प्रतिपादन किया है ।
   (2) 'निवेंद' सचारी की व्यजना है ।
   (3)  वैराग्य का प्रतिपादन् है ।
                        (२४७)
   कौंण कौंण गया राम कौंण कौंण न जासी,
            पड़सी काया गढ़ माटी थासी ॥ टेक ॥
   इंद्र सरोखे गये नर कोड़ी, पांचो पाडौं सरिषी जोड़ी ।
   धू अविचल नहीं रहसी तारा, च्ंद सूर की आइसी वारा ॥
   कहे कबीर जग देसि समारा, पड़सी घट रहसी निरकारा ।
   शब्दार्थ---- जासी= जाएगा । गढ़=   । पढ़सी= गिरेगा । थासी= दो