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६६८] [कबीर

                             (२३७) 
      बदे तोहि बदिगी सौ कांम , हरि बिन जांनि और हरांम । 
      दूरि चलणां कूंच बेगा ,    इहां नहीं सुकांम॥ टेक ॥ 
      इहा नही कोई यार दोस्त , गांठि गरथ न दाम  । 
      एक एकै सगि चरणां  , बीचि नहीं विश्रांम  ॥ 
      संसार सागर विषम तिरणां , सुमरि लै हरि नांम । 
      कहै कबीर तहा जाइ रहणां नगर बसत निधांन ॥ 

शब्दार्थ बदे दास , भक्त । बदिगी = सेवा , भक्ति । हराम = (मुसलमान बम शास्त्र ) के विरुद्ध , निपिद्ध् । कूच =रवानगी । बेगा = शीघ्र । मुकाम = बाम स्वान, घर । गरथ = सम्पति । निधान = कृपानिधान , भगवान ।


    सन्दर्भ - कबीरदास संसार के प्रति उदसीन होकर भगवान की भक्ति को याद करने का उपदेश देते है । 
    भावार्थ - रे भक्त ! तुझे तो भगवान की भक्ति से काम है । भगवान की भक्ति के अतिरिक्त अन्य सब बातो को तुम निपिद्ध  यानि धर्मशास्त्र के विरुद्ध  समझो । तेरा गन्तव्य बहुत दूर है । अतएव यहाँ से जल्दी ही रवाना हो जाओ । उस संसार में तुम्हाऱे वास-स्थान नही है अथवा यहाँ टिकासरा लेना उचित नही है। इस दुनिया में तुम्हारा कोई हितैषी एवम शुभचिंतक भी नही है और यहाँ पर खर्च करने के लिए तेरे पास विशेष समपत्ति भी नही है (क्योंकि तुम अपने पुण्यों का क्षय कर चुके हो ) । तुमको इस यात्रा में अकेले ही चलना है और बीच में कहीं विश्राम- स्थल भी नही हैं । इस संसार रूपी सागर को पार करना बहुत कठिन काम है। तुम उसको पार करने के लिए भगवान का नाम स्मरण करो । कबीर कहते है कि तुमको तो वहाँ ज़रूर रहना है जिस नगर में स्वय कृपानिधान भगवान निवास करते हैं । 
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      अलकार - (1)रूपक - संसार सागर । 
              (II)माग रूपक - बटोही साधक का रूपक । 
      विशेष  -  (i) कबीर का कहना है कि भक्त को संसार के प्रति एकदम विमुख हो जाना चाहिए , क्योंकि परम धरम की प्राप्ति ही उसका एक मात्र उपाय है ।