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६५८ ] [ कबीर
(१) इस पद मे काव्योचित शैली मे शाकर मायावाद का प्रतिपादन किया गय है । (२३२) मीठी मीठी माया तजी न जाई, अग्यांनीं पुरिष कौं भोलि भोलि खाई ॥ टेक ॥ निरगुण सगुंण नारी, ससारि पियारि, लषमणि त्यागी गोरषि निवारी ॥ कीड़ी कुंजर मै रही समाई, तीनि लोक जीत्या माया किनहूँ न खाई ॥ कहे कबीर पद लेहू विचारी, ससारि आइ माजा किनहूँ एक कही पारी । शब्दार्थ - भोलि = भुलावा देकर । निवारी = निवारण किया, हटा कर दूर कर दिया । कीरी = चीटी । कुंजर = हाथी । पारी = खारी, कडुवी । संदर्भ - कबीरदास माया के सर्वव्यापी प्रभाव का वर्णन करते है । भावार्थ - यह मधुर एक आकर्षक लगने वाली माया किसी से छोड़ते नहीं बनती है । यह अज्ञानी व्यक्तियों को तरह-तरह के भुलावो मे डाल कर खाती रहती है । यह एक ऐसी नारी है जिसके सगुण और निर्गुण दोनो ही रूप हैं । यह समस्त संसार को प्यारी लगती है । लक्ष्मण ने इस माया का परित्याग किया और गुरू गोरखनाय ने इसे अपने ह्र्दय से हटा दिया। यह चीटी से लेकर हाथी तक मे - छोटे-छोटे प्राणी से लेकर बड़े से बड़े जीव मे - समा रही है । इसने तीनो लोको के प्राणियो को अपने वश मे कर रखा है । इसको कोइ भी समाप्त नही कर सका है । कबीरदास कहते हैं कि इस पद मे कथित मेरे कथन पर गम्भीरता पूर्वक विचार करो । समार जन्म लेने वाले समस्त प्राणियों को यह मधुर लगती है । कोई बिरले ही इनको फ बनाकर इनकी ओर आकर्षित नही हुआ है । अलंकार - (।) पुनरुक्ति प्रकाश - भोलि भोलि । (॥) निरगुण सगुण - विरोधाभास । (॥।) नंवनातिश्योक्ति - माया किनहूँ न खाई । विशेष - (।) वामना एव अनत रूप होने के कारण माया निर्गुण और बिनक्षण नारी है । इनमे विरोधी तत्व हैं । (॥) कबीर ने अन्यथ भी लिखा है कि - सुबना डरपात रहु मेरे भाई । x x x या मदारी मुगए न माने, सब दुनिया डहकापो । राधा-गप रुक को व्यापे, करि करि प्रोत सवायी । भहनि स्रष्टि ते लेनि अवानरु काहु न बेति दिखाई ।