३२४] [कबिर कि साखी भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि यदि इश्वर की खोज करने वाला बिना सच्चे विश्वास के सिंधल व्दोप तक चला गया तो भी कोइ लाभ नही। वास्तव
मे तो इश्वर ह्रदय के भीतर ही विध्यमान है भक्त को केवल विश्वास होना चाहिए।
घटि बधि कहि न देखिये, ब्रह्म रह्या भरमूरि। जिनि जांन्यां तिनि निकटि है, दूरि कहैं ते दूरि॥२॥
सन्दर्भ--इश्वर सवंव्यापी है। वह कही कम ज्यादा नही रहता है। भावार्थ- इश्वर कही पर कम या अधिक नही व्यास है, वह तो सभी जगह समान रूप से व्याप्त है। वास्तव में जो व्यक्ति उसे निकट समझते हैं उनके लिए तो वह निकट है और जो दूर कहते है, उनके लिये वह दूर है। शब्दार्थ- घटि- वधि= घट बढकर, कम य अधिक।
मैं ज्योँ हरि दूरि हैं, हरि रह्या सकल भरपूरि। श्राप पिछएँङे बाहिरा, नेडा ही थे दूरि ॥३॥
सन्दर्भ- इश्वर दूर नही बल्कि घट-घट व्यापी है। भावार्थ- मैं समझता था कि इश्वर मुझसे बहुत दूर है, लेकिन इश्वर तो इस संसार में स्वतन्त्र व्याप्त है। इतना अवश्य है कि वह अपनी पहिचन से परे है तथा समीप रहते हुए भी दूर प्रतीत होता है। शबार्थ- पिछाड= पहिचान
तिरियाकैं ओल्है राम है, परबत मेरे भांई। सतगुर मिलि परचा भया, तब हरि पाया घट माँहि॥५॥
सन्दर्भ- सतगुरू के द्वारा बताये जाने पर इश्वर को ह्दय के अन्दर ही देखा जा सकता है। भावार्थ- रामरूपी महान तत्व अहं रूपी पवन्त को ओट मे छिपा हुआ हैं अर्थात् उसका रहस्य सम्भव मे न आने के कारण ही वह विराट रूप इश्वर जीव की हष्टि से परे रहता है। सतगुरू के मिलने पर वह के विनष्ट हो जने पर प्रभु से साक्षात्कार हुआ और मैंने उन्हे अपने ह्दय में ही पा लिया। श्ब्दार्थ- ओल्है= ओट मे। तिरग्कै= स्ंहु रूपी तिनका। परचा= परिचय।
राँम नाँम तिहु लोक मे, सकल रह्या भरपूरि। यह चतुराई जाहु जलि,खोजत डोलै दूरि॥५॥
सन्दर्भ- इशर संवन्हपापि है।