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यह भारतीय साहित्य के लिए नवीन बात थी। इसके पीछे सूफियों की विरहानुभूति का ही प्रभाव है।

सूफियों के दर्शन के अनुसार जीव ब्रह्म से मृत्यु के पश्चात् मिल सकता है। इससे दूसरा सिद्धान्त यह निकला को शीघ्र से शीघ्र मृत्यु को प्राप्त किया जाय, जिससे ब्रह्म से मिलन हो। भारत में इसके पूर्व बौद्ध भी जीवन के दीपक को बुझा देने को अपना परम उद्देश्य मानते थे। जैन साधक तो जीवन दीप बुझने के पूर्व शरीर को अधमरा कर देने के समर्थक थे। मृत्यु का भय है, यह बात अभी तक स्पष्ट शब्दों में किसी ने भी नहीं कहा था। परन्तु सन्त कबीर को जब ब्रह्म वियोग की तीव्र अनुभूति हुई तो उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया की मृत्यु त्याज नहीं काम्य है:—

"जिन मरने से जग डरे सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूँ कब देखि हैं पूरण परमानन्द॥"

भारतीय जीवन में इस प्रकार की विचारधारा को आश्रय नहीं दिया जाता था, परन्तु इस्लाम या सूफी प्रभाव के कारण इस प्रकार की भावना का विकास हुआ। भक्त कवियों ने जीवन की उपयोगिता भगवान की सेवा करने में ही बताई। उनकी दृष्टि में सेवा के सामने मोक्ष प्राप्ति भी तुच्छ था परन्तु कबीर पर इसका प्रभाव न पड़ा वे फारसी के सूफी कवियों से ही अधिक प्रभावित हुए और मृत्यु को काम्य और मोहक बना दिया। यह प्रभाव हम आधुनिक हिन्दी कविता में भी देखते है।[१]

इस प्रकार सूफी कवियों के प्रेम की विरहानुभूति एवं प्रिय से मिलन की आकांक्षा से प्रभावित हुए, कबीर ने परमात्मा को पति और अपने को 'बहुरिया' माना है। विरह एवं मिलन की बेचैनियों का भी मार्मिक चित्रण किया।

सूफी कवियों द्वारा नर-नारी के शारीरिक मिलन से जीव ब्रह्म मिलन की

जो उपमा दी गयी, उसका भी प्रत्यक्ष प्रमाण हमें भारतीय भक्ति धारा में दृष्टिगत होता है। शृंगारिकता का गहरा पुट इसी कारण आया है। परन्तु यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस धारा का आगमन मुसलमानों के पूर्व भी आरम्भ में चुका था।


  1. इस असीम तम में मिलकर
    मुझको पल भर सो जाने दो
    बुझ जाने दो देव
    आज मेरा दीपक बुझ जाने दो।

    महादेवी वर्मा