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[कबीर
विश्वास के अभाव मे ससार के भ्रम एव सशय जनित कष्टो का नाश नही होता है। कबीरदास कहते है कि मूल सिद्धात यह है कि भगवान की भक्ति के बिना व्यक्ति को मोक्ष की प्रप्ति नही होती है।
अलकार - (I) गूढोवित ---लागी---छोती। (II) वत्रोवित ---क्यू---आचार, क्यू तरिहो। (III) सभग पद यमक---मानि अमानि। (IV)रुपक- साच सील का चोका, भाव भगति की सेवा, भवसागर, ससे सूल। विशेष - (I) समाज मे प्रचलित वाह्राचारो पर करारी चोट है। छुआछूत के नाम पर प्रचलित 'आठ कनोजिया नो चूल्हे'जैसे मिथ्यचारो पर तीखा व्यग्य है। (II) नाम-स्मरण की महीमा है। (III) कबीर प्रभु-भक्ति के लिए प्रेमो भक्ति (श्रद्धा) और विशवास को मूल अवलम्वन मानते है। समभाव देखे--- भवानो शन्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणी। याभ्या बिना न पश्यन्ति सिद्धा स्वानत स्थमीश्वरम। (गोस्वामी तुलसीदास) (IV) परकीरति मिलि मन न समाई। जीव सेवा के बिना मन प्रभु-भक्ति मे स्थापित हो हि नही सकता है-- सो अनन्य गति जाके मति न टरइ हनुमन्त। मै सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवत। (गोस्वामी तुलसीदास) (V) सत्य शील -- सत्य शील साधना के आधार पर चल कर साघक अपने पथ पर अग्रसर हो सकता है। धर्म रथ का निरूपण करते हुए गोस्वमी तुलसीदास ने लेखा है कि--
सोरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृद ध्वजा पताका।
(V) कहै कबीर 'नही रे मूल। तुलना करे-- वारी मथे वरु होहि घृत, सिकता ते बस तेल। घिनु हरि भगति न भव तरिय, यह सिद्धन्त अपेल।
तथा--- नाहिन आवत आन भरोसो।
वहु मत सुनि वहु पथ पुराननि जहा कहा भगरो सो। गुरु कह्रो राम-भजन नीको मोहि लगत राज-दगरो सो। तुलसी बिनु परतीति प्रीति फिरि-फिरि पचि मरे मरो सो। राम-नाम बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो। (गोस्वामी तुलसीदास)