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ग्रन्थावली] [६१५

             सालिगरांम सिला करि पूजा, तुलसी तोडि भया नर दूजा ॥ 
             ठाकुर ले पाटै पौढावा, भोग लगाई अरु आपै खावा ॥
             साच सील का चौका दीजै, भाव भगति की सेवा कीजै ॥
             भाव भगति की सेवा मांने, सतगुर प्रकट कहै नहीं छांनै ॥
             अनभै उपजि न मन ठहराई, परकीरति मिलि मन न समाई ॥
             जब लग भाव भगति नही करिहौ, तब लग सवसागर क्यूं तिरिहौ ॥
 भाव भगति विसवास बिनु, कटै न ससै सूल ।
           कहै कबीर हरि भगति बिन मूकति नही रे मूल ॥
          शब्दार्थ--पाणी=पानी। पाखण्ड=वाह्याचार। मान-अमानि=ऊँच-नीच की भावना। नट दूजा=भिन्न व्यक्ति (भक्त)
          सन्दर्भ--कबीरदास दम्भ को त्याग कर सत्याचरण का उपदेश देते है।
          भावार्थ--एक ही हवा हे और एक ही पानी हे। उनसे तैयार की हुई रसोई को (मिथ्याभिमान के वशीभूत होकर) अलग-अलग समभ लिया। मिट्टी लेकर जमीन (चोके का स्थान) पोत लिया। परन्तु यह तो कोई वताव कि उसमे छूत कहां लगी हुई थी? धरती को लीप कर पवित्र बना लिया और छुआछुत की अपवित्रता से बचने केलिए बीच मे एक लकीर खीच ली। इससे क्या हुआ। इस पवित्रता और अपवित्रता का रहस्य ह्मे कोइ समभ्का दे। ऐसी भेद-बुध्दि पर आधारित आचरण करके कोई व्यक्ति भव सागर से किस प्रकार पार हो सकेगा? ये समस्त वाह्याचार तो जीव के भ्रम से उत्पन्न हुए है। मान-सम्मान, ऊँच-नीच का भेद ये सब  मनुष्य के ही बनाए हुए है। इस प्रकार का आचरण द्वारा जीव ईश्वर को ही कष्ट देता है। ईश्वर के नाम स्मरण के बिना जीव को संतोष (सुख) की प्राप्ति नही हो सकती है। तुमने पत्थर को शालिग्राम मानकर पूजा है। तुलसी के पत्ते तोड कर पत्थर पर चढाकर व्यक्ति अपने आप को अन्य व्यक्तियो की अपेक्षा भिन्न एव श्रेष्ठ समभने लगता है। ठाकुर जी को लेकर ये लोग पट्टी पर सुला देते है तथा उनका भोग लगा कर (मूर्ति को प्रसाद दिखा कर) स्वय सब कुछ खा जाते है।
         आडम्बर की भत्संना करते हुए कबीरदास सत्य आचरण का उपदेश देते है--हे जीव, सत्य और शील का अपने अन्तकरणं मे चोका लगाओ। उसके बाद भक्ति

भाव पूर्वक भगवान की सेवा करो। ईश्वर भावपूर्ण भक्ति से ही प्राप्त होते है। सद्गुरु ने इस बात को अप्रत्यक्ष रूप से नही, अपितुस्पष्टत कहा है। जब तक अभय की स्थिति नही होती है जो भेद-भाव और द्वीत भावना से मुक्त होने पर ही सम्भव हे तब तक मन की चंचलता नही जाती है। और मन स्थिर न हो सकने के कारण परोपकार(परम तत्व के प्रेम)मे समाहित नही हो पाता है। और जब तक प्रेम भाव से प्रभू कि भक्ति नही करोगे, तब तक हे जीव, भवसागर के पार किस प्रकार जा सकोगे? प्रेम सहित प्रभु भक्ति और प्रभु के प्रति अनन्य