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(२)

पानी केरा बुलबुला अस मानुस की जाति।
देखत ही छिप जायगी ज्यों तारे परभाति॥

(३)

हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास।
सब जग जरता देखि करि भये कबीर उदास॥

इन साखियों में नश्वरता का भाव अनेक अप्रस्तुत विवानी द्वारा व्यक्त किया है। इनके पढ़ने से संसार की नश्वरता के प्रति भावोतेजन के साथ ही स्वरूप बोध में भी सहायता मिलती है। भावों को सुचारु व्यंजना के लिए ही अप्रस्तुत योजना की जाती है। भाव-व्यंजना में भी कवि की पटुता प्रतिबिम्बित होती है। जो कवि जितने सुन्दर भावों की व्यंजना कर सकता है, वह उतना ही अधिक पाठकों को प्रभावित एवं आल्हादित कर पाता है। अतः आवश्यक है कि भावों में ये नवीनता हो और सुचारुता हो। इसके लिये प्रबल अनुभूति की अपेक्षा है। संतों और विशेषतया कबीर की अनुभूति बड़ी गहन थी। अनुभूति की गहनता में पहुँचकर ही उन्होंने रूपको एवं अन्योक्तियों की रचना की है। भावों की सुन्दर व्यंजना के लिये निम्नलिखित पद पठनीय है।

सतगुरु है रंगरेज चुनर मेरी रंगि डारी।
स्याही रंग छुड़ाइ केरे, दियो मंजीठा रंग।
धोये से छूटै नहीं रे, दिन दिन होत सुरंग॥
भाव के कुण्ड नेह के जल में प्रेम रंग देई बोर।
चसकी चास लगाइ केरे, खूब रंगी झकझोर॥
सतगुरु ने चुनरी रंगी रे, सतगुरु चतुर सुजान।
सब कुछ उन पर वार दूँ रे, तन मन धन औ प्रान॥
यह कबीर रंगरेज गुरु रे, मुझ पर हुए दयाल।
सीतल चुनरी ओढ़ि के रे, भइहौ मगन निहाल॥

इसी प्रकार कबीर के पद 'मन फूला फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे' तथा 'हंसा करो नाम नौकरी' भावा व्यंजकता की दृष्टि से उत्तम पद है। कबीर के काव्य में अप्रस्तुत विधान की ध्वन्यात्मिकता बड़ी प्रभावशाली है। ध्वन्यात्मक अप्रस्तुत योजना मार्मिक मानी गई है। 'मन फूला फूला फिरे' में कितनी सुन्दर ध्वन्यात्मक है। कबीर के अप्रस्तुत विधान में व्यंग्यों को बहुत स्थान मिला है। अनुचित न होगा

क॰ सा॰ फा॰—४