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विषम,[१] अनन्वय,[२] असंगति,[३] काव्यलिंग,[४] श्लेष,[५] यमक,[६] अनुप्रास[७] आदि के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। कबीर के काव्य में प्रयुक्त अलंकारों में सर्वत्र औचित्य प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ यहाँ पर कतिपय साखियाँ उद्धृत की जाती है:—
(१)
मनुष जन्म दुर्लभ अहै, होय न बारम्बार।
तरुवर से पत्ता भरै, बहुरि न लागै डार॥
(२)
पूजा सेवा नेम व्रत गुडियन का सा खेल।
जबलगि पिउपरिचय नहीं, तब लगि संसय मेल॥
(३)
विरह कमण्डल कर लिये, बैरागी दोउ नैन।
मागे दरस मधुकरी छके रहै दिन रैन॥
कबीर की अप्रस्तुत योजना पूर्णतया गुण व्यापार, फल, रूप साम्य पर आधारित है। यह औचित्य उनकी उलटवासी साहित्य में भी उपलब्ध होता है। यह तभी सम्भव हो सकता जब कि सादृश्य स्वरूप अधिक और भावोत्तेजक हो। यदि अप्रस्तुत विधान स्वरूप अधिक मात्र है, तो वहाँ सौन्दर्य सृष्टि ही होती है। भावानुकूल साम्य योजना यथार्थं कही जाती हैं। कबीर के काव्य में उपलब्ध अप्रस्तुत योजना यथार्थता से उदाहरणार्थं :—
(१)
यह तन काँचा कुम्भ है लिया फिरै का साथि।
ढबका लागा फूटि गया कछु न आया हाथि॥