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ग्रंथावली]
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(iI) विरोधाभास- साची तासूं ।

विशेष- (I) इससे अद्वैतवाद के प्रति बिम्बवाद का प्रतिपादन है ।

(II) जगत को चित्रवत् बताकर अद्वैतवाद के मिध्यावाद का प्रतिपादन है ।

[६ ] बारहपदी रमैणी

(३२)

पहली मन मै सुमिरौ सोई, ता सम तुलि अबर नही कोई ॥

कोई न पूजे वांसूँ प्रांनां, आदि अति वो किनहू न जांनां ॥

रूप सरूप न आबै बोला, हरू गरू कछु जाइ न तोला ॥

भूख न त्रिषा धूप नहीं छांहीं, सुख दुख रहित रहै सब मांही ॥

अविगत अपरंपार ब्रह्म, ज्ञान रूप सब ठांम ।

बहु बिचार कर देखिया, कोई न सारिख राम ॥

शब्दार्थ- तुलि-तुल्य, समान । अवर-अन्य । हर = हलका, । गद=भारी । प्राना= ज्ञानेन्द्रिय । पूजै=पूरा पड सकना । वासू = उससे । सारिख= सरीखा, सदृश।

सन्दर्भ- कबीर परम तत्व को अगम एव अगोचर बताते हैं।

भावार्थ- सर्वप्रथम मैं उस परमात्मा क स्मरण करता हूँ जिसके समान अन्य कोइ नही है- अर्थात् मैं अद्वितीय एव महिमा वाले परमात्मा का स्मरण करता हूँ। ज्ञानेन्द्रियो द्वारा उसको प्राप्त नही किया जा सकता है। उसका आदि और अन्त को कोई नही जानता है। उसके रूप, रेखा, वर्ण आदि का विचार हमसे करते नही बनता है। हल्का या माटी के रूप से उसको तोला भी नही जा सकता है। अर्थात् न उसे भूख लगती है, न प्यास लगती है तथा धूप-छाँह उसको कुछ भी नही सताती है। वह तत्व सुख-दुख से निर्लिप्त होकर घट-घट मे व्याप्त है। वह अविगत, अपार एव ज्ञान स्वरूप ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है। हमने बहुत विचार करके देख लिया है कि राम के समतुल्य कोई भी दूसरा तत्व नही है।

अलंकार-(1) अनन्वय-ता सम **कोई, कोई न **राम।!

(11) सम्बन्धतिशयोक्ति-कोई तोला।

विशेष- राम इनिद्रय ग्राह्म नही है, भौतिक गुणो के परे है तथा वर्णना- तीत है । (111) वह द्वैत रहित अद्वैत तत्व है।

(३३)

जो त्रिभवन पति ओहै ऐसा, ताका रूप कहौ धौं कैसा ॥

सेवत जन सेवा कै तांई, बहुत भांति करि सेवि गुसाई ॥

तैसी सेवा चाहौ लाई, जा सेवा बिन रह्या न जाई ।।

सेव करंतां जो दुख भाई, सो दुख सुख वरि गिनहु सवाई ॥

सेव करता सो सुख पावा, तिन्य दुख दोऊ बिसरावा ॥