पाणी पवन संयोग करि, कीया है उतपाति ।
सु नि मै सबद समाइगा, तव फासनि कहिये जात ॥'
शब्दार्य- कलमा= वह बामय जो मूसजमानो के घर्म-विश्वास का मूल मंत्र
है “ला इलाह इत्सिल्लाह, मुहम्मद रसूलिल्लाह ।" मा कुदरति=माण । खोजि=
पता, रहस्य । रीत=बाह्याचार के ग्रन्थ ।
संदर्भ-कबीरदास धार्मिक याह्याचार की निरर्थकता बताते हैं ।
भावार्य-जिसने इस कलियुग मे कलमा का उपदेश मानयो तक पहुँचाया,
वह भी भगवान की माया का रहस्य नही समभ सका। मोह एव अज्ञान के प्रभाव
के कारण श्रेष्ठ कर्म भी निद्य कमों मे परिणत हो जाते है । वेद और कुरान जैसे
धर्म के श्रेष्ठ ग्रन्य भी अज्ञानी व्यक्तियो के हाथो मे पड जाने के कारण बाह्याचार के
आधार बन गये। जो गर्भ मे उत्पन्न होता है, वह कृत्रिम है जो नाम और यश
धारण करता है, वह भी कृत्रिम है। सुन्नत करवाना और यज्ञोपवीत धारण करना
दोनो ही याह्याडम्बर मात्र हैं। हिन्दू और मुसलमान दोनो ही परम तत्व के
वास्तविक रूप को नही जानते हैं । व्यक्ति अपने मन का सुघार करने का उपाय तो
जानता नही है और मति भ्रष्ट होकर दो भिन्न प्रमों की बात करता है। जल और
हवा, विन्दु एव प्राणी के सयोग से भगवान ने इस शरीर की उत्पत्ति की है। रे
मानव जब शब्द शून्य मे समा जाएगा अर्थात जय व्यक्ति व्यापक चैतन्य मे विलीन
हो जाएगा, तब उस समय जाति-भेद की बात किससे करेगा ?
अलंकार-(१) वृत्यानुप्रास-कलमा कलि कुदरति । करम करीम ।
(२) सवधातिशयोक्ति-- कुदरति पावा । हिन्दू- भेऊ।
(३) दृष्टान्त-वैद कुरान रीता ।
(४) विरोधाभास-- कृतम घटिया ।
(५) वश्रोक्ति-- तब कासनि जाति ।
विशेष-(१) वाह्याचार का विरोध है ।
(२) कबीर कहते हैं कि धर्म ग्रन्थ भूठे नही है। अग्यानियो एवं स्वार्थियो के हायो मे पडकर वे बाह्याचार के मात्र साधन बन कर रह गये हैं । उनका वास्तविक स्वरूप तिरोहित हो गया है।
(३) कृतम घटिया व्यजना यह है कि परम तत्व अजन्मा एव नाम- रूप के परे है ।
(४) पारमायिक अबस्था अभेदात्मक है । पारमाणविक दशा मे अभेद की ही कल्पना की जा सकती है ।
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तुरको घरम बहुत हम खोजा, बहु वजगार करै ए योधा ॥
गाफिल गरत्र करे अधिकाई, स्वप्रथ क्षरवि बर्घ ए गाई ॥'