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ग्रन्थावली ]
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साक्षात्कार होते ही भक्त का कल्याण हो जाता है। वह ज्योति उत्पन्न नही हुई और उसने शरीर भी धारण नही किया। उसको प्राप्त करने का मार्ग जल से सीचा हुआ नही है अर्थात् सरल सुगम नही है। वहाँ तक सूर्य का प्रकाश नही पहुँचता है। उस परम ज्योति को लाकर मुझको कौन प्रदान करेगा? उस ज्योति के साक्षात्कार की अवस्था मे न हवा है न पानी। उस अवस्था मे सृष्टि की उत्पत्ति भि नही हुई थी। उस समय न शरीर था, न उसका निवास प्राण ही। उस समय न धरती थी न आकाश ही। उस समय न गर्भ था न उसका मूल कारण ही न उपादान कारण मूल प्रकृति थि और न मिन्न करण पुरुप ही) तब न कलो थी और न फूल था अर्थात् अव्य्क्त व्यक्त की कल्पना नही थी। उस अवस्थ मे न शब्द था और न उसका भोग ही । तब न ये विधाएँ थी और न उससे सम्बन्धित वाद-विवाद ही। उस अवस्था मे गुरु और चेला भी नही थी। उस समय गम्य और अगम्य करके विविध मांग नही थे-केवल सहज प्रेम-साधना का एक ही मांग था। उस अविगत के स्वरुप का क्या वर्णन करु? उसका न कोई गाँव (निवास स्थान) है और न कोई नाम। उस गुणतीत को किस प्रकार देखा जा सकता है? उसका नाम भी क्या रखा जा सकता है? अभिप्राय यह है कि वह परय तत्त्व स्थान, नाम्, गुण आदि से रहित है तथा शब्द और अर्थ के द्वारा जो कुछ अभिवेय है उससे वह परे है।

अलंकार -- (१) पुनरुक्ति प्रकाशा- केऊ केऊ।

(२) विरोधासास-अवरन ज्योति उजियारा।

(३) वक्त्रोक्ति-सो मोहि दाना, गुण विहून नाव।

(४) सभग पद यमक -पानी उपानी।

विशषे--(१) वह परम अनादि, अरुप,अवर्णनीय, अगोचर है।

(२) सवद-- उपलक्षणा पध्दत्ति से तात्पर्य है इन्द्रियासक्ति।

(३) गम अगर्म पथ अकेला-वह ज्ञाता और ज्ञये के भेदो से रहिनत केवल शान स्वरुप है।

(४)ब्रह्मा की अनिवर्चनीयता एव अद्वैत का प्रतिपादन कबीर पर वेदात दर्शन के प्रभाव को धोतित करता है।


(२५)

आदम आदि सुधि नहिं पाई, मां मां हवा कहां थे आई ॥

जब नहीं होते रांम खुदाई, साखा मूल आदि नहीं भाई ॥

जब नही होति तुरक न हिंदू, माका उवर पिया का व्यंदू ॥

जब नही होते गाई कसाई, तब बिसमला किनि फुरमाई ॥

भूले फिरै दीन हैं धांवै ता साहिब कइ पंथ न पावै ॥

संजोगै करि गुण धरया, बिजोगै गुण जाइ ।

जिभ्या स्वारथि आपरगे, कोजै बहुत उपाद ॥