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[ कबीर
 

(४) पुनरुक्ति प्रकाश-राम की आवृति ।

(५) अनन्वय-जो सुख .... तूला ।

(६) उपमा-सुख हमारा ।

विशेष--(१) बसन्त एवं ससि सुन्दर प्रतीक हैं । बसंत है भक्ति के उदय का महोत्सव । चन्द्रमा है प्रेम का प्रतीक ।

(२) भक्ति की दशा का मार्मिक वर्णन है ।

(३) रहस्यवाद की व्यजना है ।

(४) जिहि"""" जानै कोइ-- इस प्रकार की पक्तियो मे कबीरदास भक्ति के उदय के महोत्सव का दिव्य सगीत गाते हुए दिखाई देते हैं, उसे मौन आचरण कहिए अथवा गूंगे का गुड कहिए । यथा -

अपुनपो आपुन ही में पायो ।

सबद-ही सबद भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।

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सूरदास, समुझे की यह गति, मन ही मन मुसकायो ।

कहि न जाइ या सुख की महिमा, ज्यों गूंगे गुर खायो । '

(सूरदास)
 

[ ५] अष्टपदी रमैणी

( २४ )

केऊ केऊ तीरथ व्रत लष्टांनां, केऊ केऊ केवल रांम निज जांनां ॥

अजरा अमर एक अस्थांनां, ताका मरम काहू बिरले जांना ॥

अबरन जोति सकल उजियारा, द्रिष्टि समांन दास निस्तारा ॥

जे नहीं उपज्या धरनि सरीरा, ताकै पथिन सींच्या नीरा ॥

जा नहीं लागे सूरजि के बांनां, सो मोहि आंनि देहु को दानां ॥

जब नहीं होते पवन नहीं पानी, जब नहीं होती सिष्टि उपानी ॥

जब नहीं होते प्यंड न वासा, तब नहीं होते धरनि अकासा ॥

जब नहीं होते गरभ न मूला, तब नहीं होते कली न फूला ॥

जब नहीं होते सवद न स्वाद, तब नहीं होते विधान वादं ॥

जब नहीं होते गुरू न चेला, गम अगमै पथ अकेला ॥

अवगति- की गति क्या कहूँ, जसकर गाँव न नांव ।

गुन विहूँन का पेखिये काकर धरिये नांव ॥

शब्दार्थ--लपटाना--=लिप्त । वर्ण== रग, रुप । विन्तारा=कल्याण ।

सन्दर्भ-----कबीरदास परम तत्व की अनिवंचनीयता का वर्णन करते हैं ।

भायार्य--- कुछ लोग तीर्थ व्रत आदि में ही लिप्त बने रहते हैं : कुछ लोग केवल राम को ही अपना सर्वस्य समझते है । वह अजर एव अमर तत्व एक ही स्थान पर है । उनके रहस्य को कोई विरला ही जानता है। वह् रुप रहित् ज्योति है जिनका प्रकाश रुपन फैला हुआ है । उन ज्योति के दृष्टि में समाते ही (उनका