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हुए जीव अप्नी भूलो से सीखता जाता है, ऋमशः विकसित होता जाताहै और ज्ञानान्धकार से मुक्त हो जाता है। विषयी जीव स्वय विषयो से विरक्त हो जाता है और अन्तत परम तत्व को प्रप्त कर लेता है।
विषय-दग्ध जीव की स्थिति दूध से जले जुए उस व्यक्ति के समन हो जाती है जो छाछ को फूंक फूंक कर पीता है। भ्रम जनित रज्जु सर्प से दशित व्यक्ति लोक-व्यवहार मे भी रस्सी को सर्प समभ्कने लगता है। जो तुलसीदास सर्प को रस्सी समभ्ककर प्रियतमा की अट्टालिका पर छढ गये थे, उन्ही तुलसी ने प्रत्येक रस्सी को सर्प समभ्क कर छोड दिया था। (११) भ्कूठ देखी दुनियाई- समभाव के लिये देखी-- केशव कहि न जाइ का कहिये।
सून्य भीति पर चित्र, रग नहिं तनु बिनु लिखा वितेरे ।
रबिकर-नीर बसै अति दारुन, मदर रूप तेहीं माहीं। वदन हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन के जाहीं। कोउ कह सत्य, भ्कूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै। तुलसिदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचानै। (गोस्वामी तुलसीदास) (२२)
अनित भ्कूठ दिन धावै आसा, अध दुरगंध सहै दुख त्रासा ॥ इक त्रिषावत दुसरै रवि तपई, दह दिसि ज्वाला चहँ दिसि जारई॥ करि सनमुखि जव ग्यांन विचारी, सनमुखि परिया अगनि मझारी ॥ गछत गछत जब आगै आवा, बिव उनमान ढिब्रुवा इक पावा ॥ सीतल सरीर तन रहा समाई, तहां छाडि कत दाभ्कै जाई ॥ यू मन बारूनि भया हंभारा, दाधा दुख कलेस संसारा॥ जरत फिरे चौरासी लेखा, सुख कर भूल किनहूँ नहीं देखा॥ जाके छाडे भये अनाथा, भूली परै नहीं पावै पंथा॥ अछै अभि अंतरि नियरै दूरी, बिन चीजन्हां क्यूं पाइये भूरी॥ जा बिन ह्ंस, बहुत दुख पावा, जरत गुरि रांभ मिलावा॥ मिल्या रांभ रह्या सहजु समाई, खिन बिछुरयां जूव उरभ्कै जाई॥ जा मिलियां तै कीहै बधाई, परमांनद रैनि दिन गाई॥ सखी सहेली लीन्ह बुलाई, रुति परमानंद भेटियै जाई॥ सखी सहेली करहि अनटू, हित करि भेटे परमनंदू॥ चली सखी जह्ँवां निज रामां, भये उछाह जाडे सब कांभां॥ जांनू किभोरौ सरस बसता, मै बलि जांऊ तोरि भगवंता॥