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[कबीर
 

शब्दार्थ--उतग=ऊँचा । पतगा=कीडा--निम्न कोटि का प्राणी । जबुक=गीदड, सियार । अपने उपमाना=अपनी सामर्थ्य के अनुसार । हकारना= पुकारना । मुखाँ साध=मुख से साघना करता हूँ । कुविज=कुबड़ा ।

सन्दर्भ--कबीर राम की माया का वर्णन करते है।

भावार्थ--मैंने अपने सारतत्व रामनाम को प्राप्त कर लिया है। मुभ्क को यह भी ज्ञान हो गया है कि यह समस्त ससार मिथ्या और निष्प्रयोजन है। भगवान अत्यन्त उच्च है और मैं निम्न कोटि का प्राणी हूँ। मेरा और भगवान का साथ वैसा ही है जैसा गीदड और सिंह का साथ हो । मुभ्क को राम नाम की निधि ऐसे ही मिल गई है जैसे किसी अत्यन्त दरिद्र को स्वप्न मे निधि मिल जाती है। इस अपार शोभा वाली निधि को मैं छिपाकर नही रखुगा । भक्ति का आनन्द मेरे हृदय मे समा नही रहा है और इसकी कोई सीमा नही है । इस आनन्द के प्रति मुभ्को ऐसा लालच हो गया है कि मैं इसके आनन्द मे भागीदार होने के लिए अन्य किसी को पुकारता भी नही हूँ। मैं अपने हिसाब से (सामर्थ्य के अनुसार) राम नाम का स्मरण करता हूँ। इससे मुभ्क को राम के प्रेम-योग का कुछ थोडा बहुत ज्ञान हो गया है । मैं मुख से राम-नाम की साधना करता हूँ, परन्तु उस असाध्य भगवान को प्राप्त करना मैं क्या जानूँ ? मुभ्को तो केवल राम-नाम की किंचित उपलब्धि हुई है । मैं कुवडा हूँ मैंने ऊँचे पर लगने वाले अमृत फल की इच्छ की, मैं जब इस फल तक पहुँच गया, तब मेरी मनोकामना पूरी हुई अर्थात् जब तक मुभभ्के मोक्ष की प्राप्ति नही हो गई, तब तक मैं अपने सीमित साधनों के द्वारा निरन्तर प्रयत्नशील वना रहा । वह परम तत्व अपना ही स्वरूप है । अत्यन्त समीप होते हुए भी अपने से भिन्न एव दूर प्रतीत होता है। राम के चरित्र को मेरा मन नही जानता है—-वह अगम्य एव शब्दातीत है । इसकी माया अनिर्वचनीय है जो शीत से अग्नि, सूर्य से चन्द्रमा तथा चन्द्रमा से सूर्य कर देती है । शीत से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। जल की एक बूद भी जलनिधि में परिणत हो जाती है और फिर वही जलराशि पृथ्वी के रूप मे ठोस हो जाती है। एक क्षण मे ही यह तत्व बज्र से तिनका बन जाता है और फिर दूसरे ही क्षण बह पुन कठोर बज्र मे परिणत हो जाता है । वह पहाड से रेणु और रेणु से पहाड बन जाता है । उस अविगत की माया (लीला को कोई भी नही जान सका है।

अलंकार-(I)उदाहरण--हरि... सगा ।

(II)अतिशयोत्कि-हृिरदै ......पाई ।

(III)विरोधाभास--नियरि तै......नियरा, सोत.... फुनि होई ।

(IV)संबंधातिशयोक्ति--गति जानै नहिं कोई ।

विशेष-(I)पतगा मे उपलक्षणा है ।

(ii) कुबिज.... ..वंछया--समभाव देखें-- ।