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घ्रन्थावली]

              (VIII)पुनरुत्कि प्रकाश  जरत जरत।
      विशेष---(I)खेल तुम्हारा  मोरा---किसी की जान गई और आपकी
 अदा ठहरी।
       (II)मेघ न बरसै ...पियावै---समभव के लिए तुलनात्म्क अध्ययन करें---
            जैं घन बरषै समय सिर जौं भरि जनम उदास।
            तुलसी या चित चातकहि  तऊ तिहारी आस।
            जीव चरावर जहँ लगे हैं सबको हित मेह।
            तुलसी चातक मन बस्यो घन सों सहज सनेह।
                                      (गोस्वामी तुलसीदास)
      (III) भया दयाल...   आस---तुलना करे।
       सुनि हो मैं हरि आवान की आवाज ।
            महल चेटचटि जोऊँ सजनी, कब आवै महारज ।
            दादुर मोर पपोहा बोलै, कोमल मधुरे साज ।
            उमग्या इन्द्र चहुँ दिसि बरसै,दामण छोड़ी लाज ।
            धरती रूप नवा-नवा धरिया, इन्द्र मिलण कै काज ।
            मीराँ के प्रभु गिरिधर नागर, बेगि मिलौ महाराज ।    (मीराँबाई)
       (IV)अपने ओगुन--पारा   तुलना करें ।
           जो अपने सब औगुन कहहू । बाढहि कथा पार न लहहूँ ।
                                            (गोस्वामी तुलसीदास)
        (V)मैं रनिरासो---जाई ं  समभाव के लिए देखेँ ।
             तुम अपनायौ तब जानिहाँ, जब मन फिरि परिहै ।
     तथा--जेहि सुभ्काव विषयानि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाडि छल करिहै ।
                                            (गोस्वामी तुलसीदास)
                           
        रांम नांम निज पाया सारा, अबिरथा भ्कूठ सजल संसारा ।
        हरि उतग मै जाति पतंगा, जबकु केहरी कै ज्यूं संगा ॥
        क्यचिति है सुपनै निधि पाई, नहीं सोभा कौं धरो लुकाई ।
        हिरदै न समाई जांनियै नहीं पारा, लागै लौभ न और हकारा ॥
        सुमिरत हू अपनै उनमानां, क्यंचित जोग रांम मैं जांनां ।
        मुखां साध का जानियै असाधा, क्यचिति जोग रांम मै लाधा ॥
        कुबिज होई अमृत फल बंछचा, पहुँचा तब मन पूगी इछ्चां ।
        नियर थै दूरि दूरि थै नियरा, रामचरित न जानियै जियरा ॥
        सीत थै अगिन फुनि होई, रबि थै ससि थै रबि सोई ।
        सीत थै अगिन परजरई, जल थै निधि निधि थै थल करई ॥
        बज्र थै तिण खिण भीतरि होई, तिण थै कुलिस करै फुनि सोई ।
        गिरवर छार छार गिरि होई, अविगति गति जानै नहीं कोई ॥