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भूलि पर्यो जीव अगधिक डराई, रजनी अंद कूप ही आई।।
माया मोह उनवे भरपूरी, दादुर ढामिनि पवनां पूरी।। तरिपे बरीषै अखंड धारा, रैनि भांमनीँ भया अंधियारा।। तिहि बियोग तजि भए अनाथा परे निकुंज न पावै पथा।। वेद न आहि कहू को मान, जानि बुशी मै भया अयान नट बहु रूप खेल तब जानै, कला करे गुन ठाकुर मानै औ खेल सब ही घट मांहीं, दूसर कै लेखै कछु नाहीं जाके गून सोई पै ज़न और को जाने पार अयाने भले रे पांच