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[कबीर

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भोजन का स्वाद लिया । धीरे धीरे करके तुम मोह मे फँस्ते गये। जब तुम बडे 
हुए तो तुमको कटु और मधुर की पहचान होने लगी। इस समय तुम पाँचो 
इन्द्रियो के दिषय रस का  भोग करने लगे । जवानी की तेजी प्राप्त  होने पर तुम 
स्त्री के मुख को और ट्क्ट्की लगाए रहे और उसका  भोग करते समय तुमने
अवसर कुअवसर का ध्यान नही रखा । उस समय तुम अत्यन्त उच्छ ख्ल (विवेक
शुन्य) होकर आपे के बाहर हो गये तथा तुम्हे पाप-पुण्य का विवेक नही रहा।
केश भुरे होकर पूष्पो कि भाँति एक दम सफेद हो गये।और वाणी मे भी फर्क
आ गया। वात पीछे आने वाला क्रोध समाप्त होगया और ह्रुद्य द्या रुपी पावस
त्रतु से गीला रह्ने लगा(दन्य आगया)काम की प्यस भी मंद् पड गई ।अंह्कार
की गाँठे समाप्त गो गई और स्वय के प्रति दया एव करुणा के भाव जाग्रत होने 
लगे।(इस वृदावस्था मे)कायारुपी कमल मुरभा जाता है।मरते समय पश्चाताप 
की वेद्ना से दुखी होता है, अपने अतीत पर पछ्ताने लगता हे।परन्तु इस समय
पछ्तने से क्या होता है?कबीरदास कह्ते है सतो।सुनो, धन , सम्पति
(आसत के विषय)कुछ भि तुम्हारे साथ नही जा सकेगा। जब राजा गोपाल क 
आदेश आता हे , तब प्राणी को उसी समय धरती पर सो जाना पडता है।

अल्ंकार-(i) पुनरुक्ति प्रकश छिन छिन ।

            (ii)अनुप्रास- तरुण तेज विष , पाप पुनि पिछाने
            (iii)भग पद यमक - सर अवसर।
            (iv)उपमा - कुसुम भये धोला।
            (v)रुपक - काया कवल।
विशेष- (i)पावस- लाक्षणिक प्रयोग है।
 (ii) संसर की असारता, निस्सरता एव नश्वरता का प्रतिपाद्न है।
 (iii) ' निवद' की व्यंजना है।
 (iv) छ रस मधुर , अम्ल, लवण, कदु, कषाय और तिक्त।
                  (४०२)

लोका मति के भोरा रे। जौ कसो तन तजे कबोरा, तौ रामहि कहा निहोरा रे॥ ट्के॥ तव हम वेसे अब हम एसे, इहै जनम क लाहा। ज्यू जल मे जल पौसि न निकसौ , यु ढुरि मिल्य जुलाहा॥ राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा । गुर प्रसाद साध की संगति , जग जीते जाइ जुलाहा॥ कहे कबीर सुनह रे सतो , भ्रमि परे जिनि कोई। जस कासी तस मगहर ऊसर, हिरदे राम सति होई॥ शब्दाथ- लोका= सगार के लोग । निहोरा= ञ्नुरोध, प्राथना। रान्दभ- कबीरदास अंध विश्वागो का खण्ड्न करने हुए कह्ते है।