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क्बीर पात फ़्ड्ता यूँ कहै,सुनि तर-वर वन-राइ । अब के बिछुडे ना मिलै, दूरि पडेंगे जाइ ।

            राग धनाश्री

जपि जपि रे जीयरा गोब्यंदो, हित चित परमांनदो रे । विरही जन कौ बल हौ, सब सुख आंनदकदों रे । टेक॥ धन धन झीखत धन गयौ, सो धन मिल्यौं न आये रे । ज्यूँ बन फूली मालती, जन्म अबिरथा जाये रे । प्राणी प्रीति न कीजिये, इहि फूठैं स्ंसारो रे॥ धूबां केरा पूतला काहे गरब कराये रे॥ दिवस चारि कौ पेखनौं, फिरि माटी मिलि जाये रे। कामीं ऱाम न भावई, भावँ बिषँ बिकारो रे॥ लोह नाव पाहन भरी, बूड्त नांहीं बारो रे॥ नां मन सूचा न मरि सक्या, नां हरि भजि उतराया पारो रे। कबीरा क्ंचन गहि रह्यौ, कांच गहै संसार रे॥

शब्दार्थ - बाल्ही= वल्लभ , प्रिय। धौलहर= महल । जात= नष्ट होते हुए। देखनो= देखना भर ।

संदर्भ- कबीरदास जीवन की निस्सारता का वर्णन करते है।

भावर्थ- रे जीव तुम सदैव गोविन्द का भजन करते रहो। उन परमानंद स्वरुप प्रभु मे ही अपनी प्र्तीति और चित्त लगाऔ। भगवान विरही भक्तजनों को प्रिय तथा सब प्रकार का सुख एव आनन्द देने वाले हैँ। सांसारिक सुख- सम्पति के लिए परेशान होते हुए यह जीवन- रूपी धन नष्ट हो गया और वह भी तुम्हें प्राप्त न हो सका। जिस प्रकार निर्जन वन में फूलने वाली मालती जन्म व्य्रर्थ जाता है- वह अपनी सुगंध द्वारा किसी को भी उल्लसित नही कर पाती है, उसी प्रकार सेवा रहित प्राणी का जन्म व्यर्थ ही चला जाता है। इन सासारिक प्राणियों के मोह मे मत फसों। यह समस्त ससारी मिथ्या हू। ये धुए के महल के सामने है। इनके नष्ट होते देर नहीं लगती है। यह शरीर मिट्टी का खिलोना है। यह सहज ही नष्ट हो जाता है। इस पर क्या गर्व करना? यह शरीर तो चार दिन तक देखने की क्षोभा मात्र है। यह तो फिर मिट्टी में मिल जाएगा। वासनात्म्क मन न कभी मरा और न क्भी मर सकेगा। विपयी व्य्कति हरि का भजन करके कभी पार भी न्ही उत्तर सके है। कबीरदास कहते है मैने तो हरि भ्कति रुपी सुवर्ण का आश्रय ले लिया है। इन