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ग्रन्थवाली ]
(४) अनुप्रास-सुजान सु दर सुयश । (५) अतिश्योक्ति-सु दर सुन्दरा । विशेष-(|)भूषन पिया का अर्थ सीता भी हो सकता है। कबीर ने कही कही राम को परभ्र्मा और विष्णु दोनों ही रूपो मे स्वीकार किया है । (||)कबीर राम के गुणो की वन्दना बार-बार करते है, यधपि उन्हे निराकार एव निर्गुण ही मानते है । हस विरोधाभास के कारण ही कबीर सामान्य पाठक को कबीर की वाणी, अट पटी प्रतीत होने लगती है । (|||)सुन्दर सुन्दरा-तुलना करै- सुन्दरता कहै सुन्दर करई | छविगृह दोपसिखा मनु बरई| (गोस्वामी तुलसीगदास) राग कल्याण (३६३) ऐसै मन लाइ लै रांम रसनां, कपट भगति कीजं कौंन गुणां ॥टेक॥ ज्यू मृग नादे बेध्यौं जाइ,प्यड परै वाकौ ध्यांन न जाइ ॥ ज्यू जल मीन हेत करि जांनि,प्रांन तजै बिसरै नही बांनि ॥ भ्ऱिगी कीट रहै ल्यौ लाइ, ह्व्ं लै लीन भ्त्रिंग ह्व्ं जाइ ॥ राम नामं निज अमृत सार,सुमिरि सुमिरि जन उतरे पार ॥ कहै कबीर दासनि को दास,अब नहीं छाडौ हरि के चरन निवास ॥ शब्दार्थ- कौन गुणा= क्या लाभ । प्यड शरीर। सन्दर्भ- कबीर राम के प्रति अनन्य प्रेम का प्रतिपादन करते है। भावार्थ- हे जीव ,इस दिखावटी और बनावटी भक्ति का क्या उपयोग है? इससे कुछ भी लाभ नही होना है। भगवान राम की भक्ति के रसास्वादन में मन लगा कर तू ऐसा तन्मय होजा, जैसे हिरण मधुर ध्वनि मे अनुरक्त होकर वाणों से विद्ध होता रहता है एव उसका शरीर भी गिर जाता है(वह मर जाता है। परन्तु नाद से उसका ध्यान नही हटता है,मछली जल से प्रेम के कारण उससे वियुक्त होने पर अपने प्राण भले ही त्याग देती है परन्तु जल से प्रेम करने का अपना स्वभाव नही छोडती है,तथा कवि भ्रमर मे ध्यान लगाए रहता है और उसी मे लीन होकर भृंग ही बन जाता है-(परन्तु व्यक्तित्व का मोह करके भ्रमर को नही छोडता है) राम नाम ही वास्तव मे आत्म स्वरूप, अमृत स्वरूप एव सार तत्व है। उसी को बार-बार स्मरण करके अनेक भक्त जन भवसागर के पार उतर गये है। कबीर कहते है कि मैं तो भक्तो का भी भक्त हूँ(दासानुदास) हूँ। अब मेरा मन रूपी भ्रमर भगवान के चरणारविन्द मे निवास करना(अनुरक्त रहना) नही छोडेगा। अलंकार-(|)उदाहरण- ज्यूं ***है जाइ।