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(ख) मम माया सम्भव सन्सारा । जीव चराच्रर विविध प्रकाश ।

  पुनि पुनि सत्य कहउ तोहि पाही । मोहि सेवक सम परिय कोउ नाहीं ।
   भगतिवन्त अति नीचउ पुरानी । मोहि प्रानप्रिय अस मम बानी ।
                                    (गोस्वमि तुल्सिदास)


४) तन करडारूँ । कबीर ओ यह कामना बहुत कुछ इस प्रकार की है -- जेहि जोनि जन्मो कर्म बस तह राम पद अनुरगऊ ।

                ऱाग मालीगौडी
                   (२६०) 
      पन्डिता मन राजिता, भगति हेत ल्यौं लाइ रे ।
      प्रेम प्रीति गोपल भजि नर और कारण जाई रे ॥ टैक ॥
      दाम छे पणि सुरेत नांही, ग्यन छै पनि धंध रे ।
      श्रयण छे पणि सुरति नांहीं, नैन छै पणि अंध रे ॥
      जाकै नाभि पदम सु उदिस ब्रह्मा , चरन गग तरग रे ।
      कहै कबिर हरि भग्ति बांछू, जगत गुर गोब्यद रे ॥
शब्र्दार्थ : रजिता= अनुरुक्त । कराण= उपाय । जएरे= जाने दो । गाम=धन । छै= है । नाभे= टुंन्दि । वाछु= वाछा कारता हूँ ।
 सन्दर्भ: कबिर कहते है कि भगवान की भक्ति ही कनम्य होनी चहिए ।

भावर्थ- रे विष्यों मै अनुरक्त मन वाले पंडित तुम भवन कि भक्ति मै अपना मन लगाओ। प्रेम और प्रीति{श्रद्धा} पूर्वक भगवान का भजन करो तथा अन्य सब बातो को (व्यर्थ समझ् कर) जाने दो। तुम्हारे पास धन है परन्तु तुम सन्सर के धन्दो मै फँसैं हुए हो। तुम्हे श्रवणशक्ति प्राप्त है, परन्तु भगवद चर्चा सुनकर तुम्हारे भीतर भग्वन कि समुति नही जागती है। तुम नेत्रौ के होते हुए भी भगवान का साक्षात्कार न कर सकने के कारण उदै हे कहे जओगे। कबीर कहते है के जिन भगवान के नभि-कमल से ब्रम्हा की उत्पत्ति हुई है तथा जिनके चरणों से गंगा की धारा प्रकत होकर बही है , मै उन्हीं भगवान की भक्ति कि कामना करता हूँ । वो गोविन्द हि जगत को ज्ञान् प्रदान करने वाले गुरु है ।

 अलन्कर-(१) पदमंत्री-पन्डिता मन रगिता। गग तरग ।
        (२) विशेपोक्ति की व्यंज्ना- दाम- नाही, श्रवण- नाही।
        (३) वेरोधानास -ग्यन-धध रे। नैन अधरे।
        (४) परिराकुर-गोविन्द।
 विसेश- (१) इअ पद मे कबिर के राम विष्णु के अवतार रूप मे हमारे सामने आते है और वह  निर्गुण भक्त क्वियों की प्राति स्ढे हुए दिखाई देते है ।