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८३४] [ कबीर

दिशाओ मे फूट कर बह निकला है । कबीर कहते हैं कि यह जन्म व्यर्थ जा रहा है । अब तो मैं केवल सामान को लादने का काम करता हूँ और मै अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो गया हूँ ।

       अलंकार-(१) सागरूपक-जीवन को आद्यन्त एक व्यापार के रूप मे प्रस्तूत किया है ।
             (२)वऋति- कवन काज ।
             (३) रूपक-कर्म पयादौ ।
       विशेष-प्रनीको का प्रयोग है ।
       (क) नायक-जीव ।
       (ख) बनजारे पॉच-पॉच ज्ञानेन्द्रियॉ ।
       (ग) बैल पच्चीस-पच्चीस प्रकृतियॉ ।
       आकाश की-काम,कोध,लोभ,मोह,भय ।
       वायु की-चलन,बलन,बावन,प्रसारन,सकोचन ।
       अग्नि की-सुधा,तृषा,आलस्य,निद्रा,मेथुन ।
       जल की-लार,रक्त,पसीना,मूत्र,वीर्य ।
       पृथ्वी-अस्थि,चर्म,मास,नाडी,रोम ।
       नौ वहियाँ-शरीर के नवद्वार,अथवा नौ हाथ(जिनसे नापते हैअं)-चार अनतः करण्-मन चित बुध्दि एव अहंकार । तथा पंच प्राण-प्राण,अपान,समान,उदान,व्यान) सात सूत-सप्त घातु-रस,रक्त,माँस,वसा,मज्जा,अस्थि और शुक्त्र ।
       तीन जगाती-त्रिगुणात्मक प्रकृति-सत,रज,तम ।
       दस गूने-दस इन्द्रियो के अतिरिक्त इनका अर्थ दस वायु भी हो सकती हैँ-प्राण,अपान,समान,उदान,व्यान,नाग,कर्म,कूकरत देवदत तथा धनंजय ।

बहतर कसनियॉ-बहतर नाडिया ।

                  (३८४)

माघौ दारन दुख सह्यौ न जाइ,

   मेरी चपल बुघि तातै कहा वसाइ ॥ टेक ॥

तन मन भीँतरि वसै मदन चोर,जिनि ज्ञांन् ऱतन हरि लीन्ह मोर । मै अनाथ प्रभू कहूं काहि, अनेक बिगूचे मैं को आहि ॥ सनक सनंदन सिव सुकादि, आपण कवलापति भये ब्रह्मादि । जोगी जगम जती जटाघार, अपनै औसर सब गये है हारि ॥ कहै कबीरा रहु संग साथ, अभिअतरि हरि सू कहौ बात । मन ग्यांन जांनि कं करि विचार, ऱाम्ं रमता भौ तिरिवों पार ॥

   शब्दार्थ- दारन=दारूण,कठोर । चपल=चचल । बसाड=वश नही है। विगूचा विगूचा,उलभन मे डाल दिया ।